Friday, April 13, 2018

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध- आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

राजा परीक्षित् के विविध प्रश्र

राजोवाच ।
ब्रह्मणा चोदितो ब्रह्मन् गुणाख्यानेऽगुणस्य च ।
यस्मै यस्मै यथा प्राह नारदो देवदर्शनः ॥ १ ॥
एतत् वेदितुमिच्छामि तत्त्वं तत्त्वविदां वर ।
हरेरद्‍भुतवीर्यस्य कथा लोकसुमङ्गलाः ॥ २ ॥
कथयस्व महाभाग यथाऽहं अखिलात्मनि ।
कृष्णे निवेश्य निःसङ्गं मनस्त्यक्ष्ये कलेवरम् ॥ ३ ॥
शृण्वतः श्रद्धया नित्यं गृणतश्च स्वचेष्टितम् ।
कालेन नातिदीर्घेण भगवान्विशते हृदि ॥ ४ ॥
प्रविष्टः कर्णरन्ध्रेण स्वानां भावसरोरुहम् ।
धुनोति शमलं कृष्णः सलिलस्य यथा शरत् ॥ ५ ॥
धौतात्मा पुरुषः कृष्ण पादमूलं न मुञ्चति ।
मुक्तसर्वपरिक्लेशः पान्थः स्वशरणं यथा ॥ ६ ॥

राजा परीक्षित्‌ने कहाभगवन् ! आप वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ हैं। मैं आपसे यह जानना चाहता हूँ कि जब ब्रह्माजीने निर्गुण भगवान्‌के गुणोंका वर्णन करनेके लिये नारदजीको आदेश दिया, तब उन्होंने किन-किनको किस रूपमें उपदेश किया ? एक तो अचिन्त्य शक्तियोंके आश्रय भगवान्‌की कथाएँ ही लोगोंका परम मङ्गल करनेवाली हैं, दूसरे देवर्षि नारदका सबको भगवद्दर्शन करानेका स्वभाव है। अवश्य ही आप उनकी बातें मुझे सुनाइये ॥ १-२ ॥ महाभाग्यवान् शुकदेवजी ! आप मुझे ऐसा उपदेश कीजिये कि मैं अपने आसक्तिरहित मनको सर्वात्मा भगवान्‌ श्रीकृष्णमें तन्मय करके अपना शरीर छोड़ सकूँ ॥ ३ ॥ जो लोग उनकी लीलाओंका श्रद्धाके साथ नित्य श्रवण और कथन करते हैं, उनके हृदयमें थोड़े ही समयमें भगवान्‌ प्रकट हो जाते हैं ॥ ४ ॥ श्रीकृष्ण कानके छिद्रोंके द्वारा अपने भक्तोंके भावमय हृदयकमलपर जाकर बैठ जाते हैं और जैसे शरद् ऋतु जलका गँदलापन मिटा देती है, वैसे ही वे भक्तोंके मनोमलका नाश कर देते हैं ॥ ५ ॥ जिसका हृदय शुद्ध हो जाता है, वह श्रीकृष्णके चरणकमलोंको एक क्षणके लिये भी नहीं छोड़ताजैसे मार्गके समस्त क्लेशोंसे छूटकर घर आया हुआ पथिक अपने घरको नहीं छोड़ता ॥ ६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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