॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध- आठवाँ
अध्याय..(पोस्ट०१)
राजा
परीक्षित् के विविध प्रश्र
राजोवाच
।
ब्रह्मणा
चोदितो ब्रह्मन् गुणाख्यानेऽगुणस्य च ।
यस्मै
यस्मै यथा प्राह नारदो देवदर्शनः ॥ १ ॥
एतत्
वेदितुमिच्छामि तत्त्वं तत्त्वविदां वर ।
हरेरद्भुतवीर्यस्य
कथा लोकसुमङ्गलाः ॥ २ ॥
कथयस्व
महाभाग यथाऽहं अखिलात्मनि ।
कृष्णे
निवेश्य निःसङ्गं मनस्त्यक्ष्ये कलेवरम् ॥ ३ ॥
शृण्वतः
श्रद्धया नित्यं गृणतश्च स्वचेष्टितम् ।
कालेन
नातिदीर्घेण भगवान्विशते हृदि ॥ ४ ॥
प्रविष्टः
कर्णरन्ध्रेण स्वानां भावसरोरुहम् ।
धुनोति
शमलं कृष्णः सलिलस्य यथा शरत् ॥ ५ ॥
धौतात्मा
पुरुषः कृष्ण पादमूलं न मुञ्चति ।
मुक्तसर्वपरिक्लेशः
पान्थः स्वशरणं यथा ॥ ६ ॥
राजा
परीक्षित्ने कहा—भगवन् ! आप वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ हैं। मैं आपसे यह जानना चाहता हूँ कि
जब ब्रह्माजीने निर्गुण भगवान्के गुणोंका वर्णन करनेके लिये नारदजीको आदेश दिया,
तब उन्होंने किन-किनको किस रूपमें उपदेश किया ? एक तो अचिन्त्य शक्तियोंके आश्रय भगवान्की कथाएँ ही लोगोंका परम मङ्गल
करनेवाली हैं, दूसरे देवर्षि नारदका सबको भगवद्दर्शन करानेका
स्वभाव है। अवश्य ही आप उनकी बातें मुझे सुनाइये ॥ १-२ ॥ महाभाग्यवान् शुकदेवजी !
आप मुझे ऐसा उपदेश कीजिये कि मैं अपने आसक्तिरहित मनको सर्वात्मा भगवान्
श्रीकृष्णमें तन्मय करके अपना शरीर छोड़ सकूँ ॥ ३ ॥ जो लोग उनकी लीलाओंका
श्रद्धाके साथ नित्य श्रवण और कथन करते हैं, उनके हृदयमें
थोड़े ही समयमें भगवान् प्रकट हो जाते हैं ॥ ४ ॥ श्रीकृष्ण कानके छिद्रोंके
द्वारा अपने भक्तोंके भावमय हृदयकमलपर जाकर बैठ जाते हैं और जैसे शरद् ऋतु जलका
गँदलापन मिटा देती है, वैसे ही वे भक्तोंके मनोमलका नाश कर
देते हैं ॥ ५ ॥ जिसका हृदय शुद्ध हो जाता है, वह श्रीकृष्णके
चरणकमलोंको एक क्षणके लिये भी नहीं छोड़ता—जैसे मार्गके
समस्त क्लेशोंसे छूटकर घर आया हुआ पथिक अपने घरको नहीं छोड़ता ॥ ६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
No comments:
Post a Comment