॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट११)
भगवान्के
स्थूल और सूक्ष्म रूपोंकी धारणा
तथा
क्रममुक्ति और सद्योमुक्तिका वर्णन
भगवान्
ब्रह्म कार्त्स्न्येन त्रिरन् वीक्ष्य मनीषया ।
तदध्यवस्यत्
कूटस्थो रतिरात्मन् यतो भवेत् ॥ ३४ ॥
भगवान्
सर्वभूतेषु लक्षितः स्वात्मना हरिः ।
दृश्यैर्बुद्ध्यादिभिर्द्रष्टा
लक्षणैः अनुमापकैः ॥ ३५ ॥
तस्मात्
सर्वात्मना राजन् हरिः सर्वत्र सर्वदा ।
श्रोतव्यः
कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यो भगवान् नृणाम् ॥ ३६ ॥
पिबन्ति
ये भगवत आत्मनः
सतां कथामृतं श्रवणपुटेषु सम्भृतम् ।
पुनन्ति
ते विषयविदूषिताशयं
व्रजन्ति तच्चरणसरोरुहान्तिकम् ॥ ३७ ॥
भगवान्
ब्रह्माने एकाग्र चित्तसे सारे वेदोंका तीन बार अनुशीलन करके अपनी बुद्धिसे यही
निश्चय किया कि जिससे सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्णके प्रति अनन्य प्रेम प्राप्त हो, वही सर्वश्रेष्ठ धर्म है ॥ ३४ ॥ समस्त चर-अचर प्राणियोंमें उनके
आत्मारूपसे भगवान् श्रीकृष्ण ही लक्षित होते हैं; क्योंकि
ये बुद्धि आदि दृश्य पदार्थ उनका अनुमान करानेवाले लक्षण हैं, वे इन सबके साक्षी एकमात्र द्रष्टा हैं ॥ ३५ ॥ परीक्षित् ! इसलिये
मनुष्योंको चाहिये कि सब समय और सभी स्थितियोंमें अपनी सम्पूर्ण शक्तिसे भगवान्
श्रीहरिका ही श्रवण, कीर्तन और स्मरण करें ॥ ३६ ॥ राजन् !
संत पुरुष आत्मस्वरूप भगवान्की कथाका मधुर अमृत बाँटते ही रहते हैं; जो अपने कानके दोनों में भर-भरकर उनका पान करते हैं, उनके हृदयसे विषयोंका विषैला प्रभाव जाता रहता है, वह
शुद्ध हो जाता है और वे भगवान् श्रीकृष्णके चरण-कमलोंकी सन्निधि प्राप्त कर लेते
हैं ॥ ३७ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वितीयस्कंधे
द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से

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