॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट१०)
भगवान्के
स्थूल और सूक्ष्म रूपोंकी धारणा
तथा
क्रममुक्ति और सद्योमुक्तिका वर्णन
तेनात्मनात्मानमुपैति
शान्तं
आनंदमानंदमयोऽवसाने ।
एतां
गतिं भागवतीं गतो यः
स वै पुनर्नेह विषज्जतेऽङ्ग ॥ ३१ ॥
एते
सृती ते नृप वेदगीते
त्वयाभिपृष्टे च सनातने च ।
ये
वै पुरा ब्रह्मण आह तुष्ट
आराधितो भगवान् वासुदेवः ॥ ३२ ॥
न
ह्यतोऽन्यः शिवः पन्था विशतः संसृताविह ।
वासुदेवे
भगवति भक्तियोगो यतो भवेत् ॥ ३३ ॥
परीक्षित्
! महाप्रलयके समय प्रकृतिरूप आवरणका भी लय हो जानेपर वह योगी स्वयं आनन्दस्वरूप
होकर अपने उस निरावरण रूपसे आनन्दस्वरूप शान्त परमात्माको प्राप्त हो जाता है।
जिसे इस भगवन्मयी गतिकी प्राप्ति हो जाती है, उसे फिर इस
संसारमें नहीं आना पड़ता ॥ ३१ ॥ परीक्षित् ! तुमने जो पूछा था, उसके उत्तरमें मैंने वेदोक्त द्विविध सनातन मार्ग सद्योमुक्ति और
क्रममुक्तिका तुमसे वर्णन किया। पहले ब्रह्माजीने भगवान् वासुदेवकी आराधना करके
उनसे जब प्रश्र किया था, तब उन्होंने उत्तरमें इन्हीं दोनों
मार्गोंकी बात ब्रह्माजीसे कही थी ॥ ३२ ॥
संसार-चक्रमें
पड़े हुए मनुष्यके लिये,
जिस साधनके द्वारा उसे भगवान् श्रीकृष्णकी अनन्य प्रेममयी भक्ति
प्राप्त हो जाय, उसके अतिरिक्त और कोई भी कल्याणकारी मार्ग
नहीं है ॥ ३३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से

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