Tuesday, March 13, 2018

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०८)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०८)

भगवान्‌के स्थूल और सूक्ष्म रूपोंकी धारणा
तथा क्रममुक्ति और सद्योमुक्तिका वर्णन

वैश्वानरं याति विहायसा गतः
    सुषुम्नया ब्रह्मपथेन शोचिषा ।
विधूतकल्कोऽथ हरेरुदस्तात्
    प्रयाति चक्रं नृप शैशुमारम् ॥ २४ ॥
तद्विश्वनाभिं त्वतिवर्त्य विष्णोः
    अणीयसा विरजेनात्मनैकः ।
नमस्कृतं ब्रह्मविदामुपैति
    कल्पायुषो यद् विबुधा रमन्ते ॥ २५ ॥
अथो अनन्तस्य मुखानलेन
    दन्दह्यमानं स निरीक्ष्य विश्वम् ।
निर्याति सिद्धेश्वरयुष्टधिष्ण्यं
    यद् द्वैपरार्ध्यं तदु पारमेष्ठ्यम् ॥ २६ ॥
न यत्र शोको न जरा न मृत्युः
    न आर्तिः न चोद्वेग ऋते कुतश्चित् ।
यच्चित्ततोऽदः कृपयानिदं विदां
    दुरन्तदुःखप्रभवानुदर्शनात् ॥ २७ ॥

परीक्षित्‌ ! योगी ज्योतिर्मय मार्ग सुषुम्णाके द्वारा जब ब्रह्मलोकके लिये प्रस्थान करता है, तब पहले वह आकाशमार्गसे अग्रिलोकमें जाता है; वहाँ उसके बचे-खुचे मल भी जल जाते हैं। इसके बाद वह वहाँसे ऊपर भगवान्‌ श्रीहरिके शिशुमार नामक ज्योतिर्मय चक्रपर पहुँचता है ॥ २४ ॥ भगवान्‌ विष्णुका यह शिशुमार चक्र विश्वब्रह्माण्डके भ्रमणका केन्द्र है। उसका अतिक्रमण करके अत्यन्त सूक्ष्म एवं निर्मल शरीरसे वह अकेला ही महर्लोकमें जाता है। वह लोक ब्रह्मवेत्ताओंके द्वारा भी वन्दित है और उसमें कल्पपर्यन्त जीवित रहनेवाले देवता विहार करते रहते हैं ॥ २५ ॥ फिर जब प्रलयका समय आता है, तब नीचेके लोकोंको शेषके मुखसे निकली हुई आगके द्वारा भस्म होते देख वह ब्रह्मलोकमें चला जाता है, जिस ब्रह्मलोकमें बड़े-बड़े सिद्धेश्वर विमानोंपर निवास करते हैं। उस ब्रह्मलोककी आयु ब्रह्माकी आयुके समान ही दो परार्द्ध की है ॥ २६ ॥ वहाँ न शोक है न दु:ख, न बुढ़ापा है न मृत्यु। फिर वहाँ किसी प्रकारका उद्वेग या भय तो हो ही कैसे सकता है। वहाँ यदि दु:ख है तो केवल एक बातका। वह यही कि इस परमपदको न जाननेवाले लोगोंके जन्ममृत्युमय अत्यन्त घोर सङ्कटोंको देखकर दयावश वहाँके लोगोंके मनमें बड़ी व्यथा होती है ॥ २७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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