Tuesday, March 13, 2018

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०९)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०९)

भगवान्‌के स्थूल और सूक्ष्म रूपोंकी धारणा
तथा क्रममुक्ति और सद्योमुक्तिका वर्णन

ततो विशेषं प्रतिपद्य निर्भयः
    तेनात्मनापोऽनलमूर्तिरत्वरन् ।
ज्योतिर्मयो वायुमुपेत्य काले
    वाय्वात्मना खं बृहदात्मलिङ्गम् ॥ २८ ॥
घ्राणेन गन्धं रसनेन वै रसं
    रूपं च दृष्ट्या श्वसनं त्वचैव ।
श्रोत्रेण चोपेत्य नभोगुणत्वं
    प्राणेन चाकूतिमुपैति योगी ॥ २९ ॥
स भूतसूक्ष्मेन्द्रियसन्निकर्षं
    मनोमयं देवमयं विकार्यम् ।
संसाद्य गत्या सह तेन याति
    विज्ञानतत्त्वं गुणसंनिरोधम् ॥ ३० ॥

सत्यलोकमें पहुँचनेके पश्चात् वह योगी निर्भय होकर अपने सूक्ष्म शरीरको पृथ्वीसे मिला देता है और फिर उतावली न करते हुए सात आवरणोंका भेदन करता है। पृथ्वीरूपसे जलको और जलरूपसे अग्रिमय आवरणोंको प्राप्त होकर वह ज्योतिरूपसे वायुरूप आवरणमें आ जाता है और वहाँ से समयपर ब्रह्म की अनन्तताका बोध कराने वाले आकाशरूप आवरण को प्राप्त करता है ॥२८॥ इस प्रकार स्थूल आवरणोंको पार करते समय उसकी इन्द्रियाँ भी अपने सूक्ष्म अधिष्ठानमें लीन होती जाती हैं। घ्राणेन्द्रिय गन्धतन्मात्रामें, रसना रसतन्मात्रामें, नेत्र रूपतन्मात्रामें, त्वचा स्पर्शतन्मात्रामें, श्रोत्र शब्दतन्मात्रामें और कर्मेन्द्रियाँ अपनी-अपनी क्रिया-शक्तिमें मिलकर अपने-अपने सूक्ष्म- स्वरूपको प्राप्त हो जाती हैं ॥ २९ ॥ इस प्रकार योगी पञ्चभूतोंके स्थूल-सूक्ष्म आवरणोंको पार करके अहंकारमें प्रवेश करता है। वहाँ सूक्ष्म भूतोंको तामस अहंकारमें, इन्द्रियोंको राजस अहंकारमें तथा मन और इन्द्रियोंके अधिष्ठाता देवताओंको सात्त्विक अहंकारमें लीन कर देता है। इसके बाद अहंकारके सहित लयरूप गतिके द्वारा महत्तत्त्वमें प्रवेश करके अन्तमें समस्त गुणोंके लयस्थान प्रकृतिरूप आवरणमें जा मिलता है ॥ ३० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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