॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०७)
भगवान्के
स्थूल और सूक्ष्म रूपोंकी धारणा
तथा
क्रममुक्ति और सद्योमुक्तिका वर्णन
यदि
प्रयास्यन् नृप पारमेष्ठ्यं
वैहायसानामुत यद् विहारम् ।
अष्टाधिपत्यं
गुणसन्निवाये
सहैव गच्छेन्मनसेन्द्रियैश्च ॥ २२ ॥
योगेश्वराणां
गतिमाहुरन्तः
बहिस्त्रिलोक्याः पवनान्तरात्मनाम् ।
न
कर्मभिस्तां गतिमाप्नुवन्ति
विद्यातपोयोगसमाधिभाजाम् ॥ २३ ॥
परीक्षित्
! यदि योगी की इच्छा हो कि मैं ब्रह्मलोकमें जाऊँ, आठों
सिद्धियाँ प्राप्त करके आकाशचारी सिद्धों के साथ विहार करूँ अथवा त्रिगुणमय
ब्रह्माण्डके किसी भी प्रदेश में विचरण करूँ, तो उसे मन और
इन्द्रियों को साथ ही लेकर शरीर से निकलना चाहिये ॥ २२ ॥ योगियों का शरीर वायु की
भाँति सूक्ष्म होता है। उपासना, तपस्या, योग और ज्ञानका सेवन करनेवाले योगियों को त्रिलोकी के बाहर और भीतर
सर्वत्र स्वछन्दरूप से विचरण करने का अधिकार होता है। केवल कर्मों के द्वारा इस
प्रकार बेरोक-टोक विचरना नहीं हो सकता ॥ २३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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