॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०६)
ध्यान-विधि
और भगवान्के विराट्स्वरूपका वर्णन
द्यौरक्षिणी
चक्षुरभूत्पतङ्गः
पक्ष्माणि विष्णोरहनी उभे च ।
तद्भ्रूविजृम्भः
परमेष्ठिधिष्ण्यं
आपोऽस्य तालू रस एव जिह्वा ॥ ३० ॥
छन्दांस्यनन्तस्य
शिरो गृणंति
दंष्ट्रा यमः स्नेहकला द्विजानि ।
हासो
जनोन्मादकरी च माया
दुरन्तसर्गो यदपाङ्गमोक्षः ॥ ३१ ॥
व्रीडोत्तरौष्ठोऽधर
एव लोभो
धर्मः स्तनोऽधर्मपथोऽस्य पृष्ठम् ।
कस्तस्य
मेढ्रं वृषणौ च मित्रौ
कुक्षिः समुद्रा गिरयोऽस्थिसङ्घाः ॥ ३२ ॥
नद्योऽस्य
नाड्योऽथ तनूरुहाणि
महीरुहा विश्वतनोर्नृपेन्द्र ।
अनन्तवीर्यः
श्वसितं मातरिश्वा
गतिर्वयः कर्म गुणप्रवाहः ॥ ३३ ॥
भगवान्
विष्णुके नेत्र अन्तरिक्ष हैं, उनमें देखनेकी शक्ति सूर्य है,
दोनों पलकें रात और दिन हैं, उनका भ्रूविलास
ब्रह्मलोक है। तालु जल हैं और जिह्वा रस ॥ ३० ॥ वेदोंको भगवान्का ब्रह्मरन्ध्र
कहते हैं और यमको दाढ़ें। सब प्रकारके स्नेह दाँत हैं और उनकी जगन्मोहिनी मायाको
ही उनकी मुसकान कहते हैं। यह अनन्त सृष्टि उसी मायाका कटाक्ष-विक्षेप है ॥ ३१ ॥
लज्जा ऊपरका होठ और लोभ नीचेका होठ है। धर्म स्तन और अधर्म पीठ है। प्रजापति उनके
मूत्रेन्द्रिय हैं, मित्रावरुण अण्डकोश हैं, समुद्र कोख है और बड़े-बड़े पर्वत उनकी हड्डियाँ हैं ॥ ३२ ॥ राजन् !
विश्वमूर्ति विराट् पुरुषकी नाडिय़ाँ नदियाँ हैं। वृक्ष रोम हैं। परम प्रबल वायु
श्वास है। काल उनकी चाल है और गुणोंका चक्कर चलाते रहना ही उनका कर्म है ॥ ३३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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