॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध- अठारहवाँ
अध्याय..(पोस्ट ०९)
राजा
परीक्षत् को शृङ्गी ऋषिका शाप
धर्मपालो
नरपतिः स तु सम्राड् बृहच्छ्रवाः ।
साक्षान्
महाभागवतो राजर्षिर्हयमेधयाट् ॥ ४६ ॥
क्षुत्तृट्श्रमयुतो
दीनो नैवास्मच्छापमर्हति ॥ ४६.५ ।
अपापेषु
स्वभृत्येषु बालेनापक्वबुद्धिना ।
पापं
कृतं तद्भगवान् सर्वात्मा क्षन्तुमर्हति ॥ ४७ ॥
तिरस्कृता
विप्रलब्धाः शप्ताः क्षिप्ता हता अपि ।
नास्य
तत्प्रतिकुर्वन्ति तद्भक्ताः प्रभवोऽपि हि ॥ ४८ ॥
इति
पुत्रकृताघेन सोऽनुतप्तो महामुनिः ।
स्वयं
विप्रकृतो राज्ञा नैवाघं तदचिन्तयत् ॥ ४९ ॥
प्रायशः
साधवो लोके परैर्द्वन्द्वेषु योजिताः ।
न
व्यथन्ति न हृष्यन्ति यत आत्मागुणाश्रयः ॥ ५० ॥
सम्राट्
परीक्षित् तो बड़े ही यशस्वी और धर्मधुरन्धर हैं। उन्होंने बहुत-से अश्वमेध यज्ञ
किये हैं और वे भगवान्के परम प्यारे भक्त हैं; वे ही राजर्षि
भूख-प्याससे व्याकुल होकर हमारे आश्रमपर आये थे, वे शापके
योग्य कदापि नहीं हैं ॥ ४६ ॥ इस नासमझ बालकने हमारे निष्पाप सेवक राजाका अपराध
किया है, सर्वात्मा भगवान् कृपा करके इसे क्षमा करें ॥ ४७ ॥
भगवान्के भक्तोंमें भी बदला लेनेकी शक्ति होती है, परंतु वे
दूसरोंके द्वारा किये हुए अपमान, धोखेबाजी, गाली-गलौज, आक्षेप और मार-पीटका कोई बदला नहीं लेते
॥ ४८ ॥ महामुनि शमीकको पुत्रके अपराधपर बड़ा पश्चात्ताप हुआ। राजा परीक्षित्ने जो
उनका अपमान किया था, उसपर तो उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया ॥
४९ ॥ महात्माओंका स्वभाव ही ऐसा होता है कि जगत्में जब दूसरे लोग उन्हें सुख-दु:खादि
द्वन्द्वोंमें डाल देते हैं, तब भी वे प्राय: हर्षित या
व्यथित नहीं होते; क्योंकि आत्माका स्वरूप तो गुणोंसे सर्वथा
परे है ॥ ५० ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे
विप्रशापोपलम्भनं नाम्ना अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
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