॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध- अठारहवाँ
अध्याय..(पोस्ट ०८)
राजा
परीक्षत् को शृङ्गी ऋषिका शाप
ततोऽभ्येत्याश्रमं
बालो गले सर्पकलेवरम् ।
पितरं
वीक्ष्य दुःखार्तो मुक्तकण्ठो रुरोद ह ॥ ३८ ॥
स
वा आङ्गिरसो ब्रह्मन् श्रुत्वा सुतविलापनम् ।
उन्मील्य
शनकैर्नेत्रे दृष्ट्वा चांसे मृतोरगम् ॥ ३९ ॥
विसृज्य
तं च पप्रच्छ वत्स कस्माद्धि रोदिषि ।
केन
वा तेऽपकृतं इत्युक्तः स न्यवेदयत् ॥ ४० ॥
निशम्य
शप्तमतदर्हं नरेन्द्रं
स ब्राह्मणो नात्मजमभ्यनन्दत् ।
अहो
बतांहो महदद्य ते कृतं
अल्पीयसि द्रोह उरुर्दमो धृतः ॥ ४१ ॥
न
वै नृभिर्नरदेवं पराख्यं
सम्मातुमर्हस्यविपक्वबुद्धे ।
यत्तेजसा
दुर्विषहेण गुप्ता
विन्दन्ति भद्राण्यकुतोभयाः प्रजाः ॥ ४२ ॥
अलक्ष्यमाणे
नरदेवनाम्नि
रथाङ्गपाणावयमङ्ग लोकः ।
तदा
हि चौरप्रचुरो विनङ्क्ष्यति
अरक्ष्यमाणोऽविव रूथवत् क्षणात् ॥ ४३ ॥
तदद्य
नः पापमुपैत्यनन्वयं
यन्नष्टनाथस्य वसोर्विलुम्पकात् ।
परस्परं
घ्नन्ति शपन्ति वृञ्जते
पशून् स्त्रियोऽर्थाम् पुरुदस्यवो जनाः ॥ ४४
॥
तदाऽऽर्यधर्मः
प्रविलीयते नृणां
वर्णाश्रमाचारयुतस्त्रयीमयः ।
ततोऽर्थकामाभिनिवेशितात्मनां
शुनां कपीनामिव वर्णसङ्करः ॥ ४५ ॥
इसके
बाद वह बालक (शमीक मुनिका पुत्र) अपने आश्रमपर आया और अपने पिताके गलेमें साँप
देखकर उसे बड़ा दु:ख हुआ तथा वह ढाड़ मारकर रोने लगा ॥ ३८ ॥ विप्रवर शौनकजी ! शमीक
मुनिने अपने पुत्रका रोना-चिल्लाना सुनकर धीरे-धीरे अपनी आँखें खोलीं और देखा कि
उनके गलेमें एक मरा साँप पड़ा है ॥ ३९ ॥ उसे फेंककर उन्होंने अपने पुत्रसे पूछा—‘बेटा ! तुम क्यों रो रहे हो ? किसने तुम्हारा अपकार
किया है ?’ उनके इस प्रकार पूछनेपर बालकने सारा हाल कह दिया
॥ ४० ॥ ब्रह्मर्षि शमीक ने राजा के शाप की बात सुनकर अपने पुत्रका अभिनन्दन नहीं
किया। उनकी दृष्टिमें परीक्षित् शापके योग्य नहीं थे। उन्होंने कहा—‘ओह, मूर्ख बालक ! तूने बड़ा पाप किया ! खेद है कि
उनकी थोड़ी-सी गलतीके लिये तूने उनको इतना बड़ा दण्ड दिया ॥ ४१ ॥ तेरी बुद्धि अभी
कच्ची है। तुझे भगवत्स्वरूप राजाको साधारण मनुष्योंके समान नहीं समझना चाहिये;
क्योंकि राजाके दुस्सह तेजसे सुरक्षित और निर्भय रहकर ही प्रजा अपना
कल्याण सम्पादन करती है ॥ ४२ ॥ जिस समय राजाका रूप धारण करके भगवान् पृथ्वीपर नहीं
दिखायी देंगे, उस समय चोर बढ़ जायँगे और अरक्षित भेड़ोंके
समान एक क्षणमें ही लोगोंका नाश हो जायगा ॥ ४३ ॥ राजाके नष्ट हो जानेपर धन आदि
चुरानेवाले चोर जो पाप करेंगे, उसके साथ हमारा कोई सम्बन्ध न
होनेपर भी वह हमपर भी लागू होगा। क्योंकि राजाके न रहनेपर लुटेरे बढ़ जाते हैं और
वे आपसमें मार-पीट, गाली-गलौज करते हैं, साथ ही पशु, स्त्री और धन-सम्पत्ति भी लूट लेते हैं
॥ ४४ ॥ उस समय मनुष्योंका वर्णाश्रमाचार- युक्त वैदिक आर्यधर्म लुप्त हो जाता है,
अर्थ-लोभ और काम-वासनाके विवश होकर लोग कुत्तों और बंदरोंके समान
वर्णसङ्कर हो जाते हैं ॥ ४५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
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