Monday, February 26, 2018

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध- उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध- उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)

परीक्षित्‌का अनशनव्रत और शुकदेवजीका आगमन

सूत उवाच ।

महीपतिस्त्वथ तत्कर्म गर्ह्यं
    विचिन्तयन् नात्मकृतं सुदुर्मनाः ।
अहो मया नीचमनार्यवत्कृतं
    निरागसि ब्रह्मणि गूढतेजसि ॥ १ ॥
ध्रुवं ततो मे कृतदेवहेलनाद्
    दुरत्ययं व्यसनं नातिदीर्घात् ।
तदस्तु कामं ह्यघनिष्कृताय मे
    यथा न कुर्यां पुनरेवमद्धा ॥ २ ॥
अद्यैव राज्यं बलमृद्धकोशं
    प्रकोपितब्रह्मकुलानलो मे ।
दहत्वभद्रस्य पुनर्न मेऽभूत्
    पापीयसी धीर्द्विजदेवगोभ्यः ॥ ३ ॥
स चिन्तयन्नित्थमथाशृणोद् यथा
    मुनेः सुतोक्तो निर्ॠतिस्तक्षकाख्यः ।
स साधु मेने न चिरेण तक्षका-
    नलं प्रसक्तस्य विरक्तिकारणम् ॥ ४ ॥

सूतजी कहते हैंराजधानीमें पहुँचनेपर राजा परीक्षित्‌को अपने उस निन्दनीय कर्मके लिये बड़ा पश्चात्ताप हुआ। वे अत्यन्त उदास हो गये और सोचने लगे—‘मैंने निरपराध एवं अपना तेज छिपाये हुए ब्राह्मणके साथ अनार्य पुरुषोंके समान बड़ा नीच व्यवहार किया। यह बड़े खेदकी बात है ॥ १ ॥ अवश्य ही उन महात्माके अपमानके फलस्वरूप शीघ्र-से-शीघ्र मुझपर कोई घोर विपत्ति आवेगी। मैं भी ऐसा ही चाहता हूँ; क्योंकि उससे मेरे पापका प्रायश्चित्त हो जायगा और फिर कभी मैं ऐसा काम करनेका दु:साहस नहीं करूँगा ॥ २ ॥ ब्राह्मणोंकी क्रोधाग्नि आज ही मेरे राज्य, सेना और भरे-पूरे खजानेको जलाकर खाक कर देजिससे फिर कभी मुझ दुष्टकी ब्राह्मण, देवता और गौओंके प्रति ऐसी पापबुद्धि न हो ॥ ३ ॥ वे इस प्रकार चिन्ता कर ही रहे थे कि उन्हें मालूम हुआऋषिकुमार के शाप से तक्षक मुझे डसेगा। उन्हें वह धधकती हुई आगके समान तक्षक का डसना बहुत भला मालूम हुआ। उन्होंने सोचा कि बहुत दिनोंसे मैं संसारमें आसक्त हो रहा था, अब मुझे शीघ्र वैराग्य होनेका कारण प्राप्त हो गया ॥ ४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से



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