Monday, February 26, 2018

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध- अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)




॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध- अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)

राजा परीक्षत् को शृङ्गी ऋषिका शाप

सूत उवाच ।

अहो वयं जन्मभृतोऽद्य हास्म
    वृद्धानुवृत्त्यापि विलोमजाताः ।
दौष्कुल्यमाधिं विधुनोति शीघ्रं
    महत्तमानामभिधानयोगः ॥ १८ ॥
कुतः पुनर्गृणतो नाम तस्य
    महत्तमैकान्त परायणस्य ।
योऽनन्तशक्तिः भगवाननन्तो
    महद्‍गुणत्वाद् यमनन्तमाहुः ॥ १९ ॥
एतावतालं ननु सूचितेन
    गुणैरसाम्यानतिशायनस्य ।
हित्वेतरान् प्रार्थयतो विभूतिः
    यस्याङ्‌घ्रिरेणुं जुषतेऽनभीप्सोः ॥ २० ॥

सूतजी कहते हैंअहो ! विलोम [*] जातिमें उत्पन्न होनेपर भी महात्माओंकी सेवा करनेके कारण आज हमारा जन्म सफल हो गया। क्योंकि महापुरुषोंके साथ बातचीत करनेमात्रसे ही नीच कुलमें उत्पन्न होनेकी मनोव्यथा शीघ्र ही मिट जाती है ॥ १८ ॥ फिर उन लोगोंकी तो बात ही क्या है, जो सत्पुरुषोंके एकमात्र आश्रय भगवान्‌का नाम लेते हैं ! भगवान्‌की शक्ति अनन्त है, वे स्वयं अनन्त हैं। वास्तवमें उनके गुणोंकी अनन्तताके कारण ही उन्हें अनन्त कहा गया है ॥ १९ ॥ भगवान्‌के गुणोंकी समता भी जब कोई नहीं कर सकता, तब उनसे बढक़र तो कोई हो ही कैसे सकता है। उनके गुणोंकी यह विशेषता समझानेके लिये इतना कह देना ही पर्याप्त है कि लक्ष्मीजी अपनेको प्राप्त करनेकी इच्छासे प्रार्थना करनेवाले ब्रह्मादि देवताओंको छोडक़र भगवान्‌ के न चाहनेपर भी उनके चरणकमलोंकी रजका ही सेवन करती हैं ॥ २० ॥

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[*] उच्च वर्णकी माता और निम्न वर्णके पितासे उत्पन्न संतानको विलोमजकहते हैं। सूत जातिकी उत्पत्ति इसी प्रकार ब्राह्मणी माता और क्षत्रिय पिताके द्वारा होनेसे उसे शास्त्रोंमें विलोम जाति माना गया है।

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से



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