Monday, February 26, 2018

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध- अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)




॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध- अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)

राजा परीक्षत् को शृङ्गी ऋषिका शाप

अथापि यत्पादनखावसृष्टं
    जगद्विरिञ्चोपहृतार्हणाम्भः ।
सेशं पुनात्यन्यतमो मुकुन्दात्
    को नाम लोके भगवत्पदार्थः ॥ २१ ॥
यत्रानुरक्ताः सहसैव धीरा
    व्यपोह्य देहादिषु सङ्गमूढम् ।
व्रजन्ति तत्पारमहंस्यमन्त्यं
    यस्मिन्नहिंसोपशमः स्वधर्मः ॥ २२ ॥
अहं हि पृष्टोऽर्यमणो भवद्‌भिः
    आचक्ष आत्मावगमोऽत्र यावान् ।
नभः पतन्त्यात्मसमं पतत्त्रिणः
    तथा समं विष्णुगतिं विपश्चितः ॥ २३ ॥

ब्रह्माजीने भगवान्‌के चरणोंका प्रक्षालन करनेके लिये जो जल समर्पित किया था, वही उनके चरणनखोंसे निकलकर गङ्गाजीके रूपमें प्रवाहित हुआ। यह जल महादेवजीसहित सारे जगत्को पवित्र करता है। ऐसी अवस्थामें त्रिभुवनमें श्रीकृष्णके अतिरिक्त भगवान्‌शब्दका दूसरा और क्या अर्थ हो सकता है ॥ २१ ॥ जिनके प्रेमको प्राप्त करके धीर पुरुष बिना किसी हिचकके देह-गेह आदिकी दृढ़ आसक्तिको छोड़ देते हैं और उस अन्तिम परमहंस-आश्रमको स्वीकार करते हैं, जिसमें किसीको कष्ट न पहुँचाना और सब ओरसे उपशान्त हो जाना ही स्वधर्म होता है ॥ २२ ॥ सूर्यके समान प्रकाशमान महात्माओ ! आपलोगोंने मुझसे जो कुछ पूछा है, वह मैं अपनी समझके अनुसार सुनाता हूँ। जैसे पक्षी अपनी शक्तिके अनुसार आकाशमें उड़ते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग भी अपनी- अपनी बुद्धिके अनुसार ही श्रीकृष्णकी लीलाका वर्णन करते हैं ॥ २३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से



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