॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--नवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)
युधिष्ठिरादिका
भीष्मजीके पास जाना और भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति
करते
हुए भीष्मजीका प्राणत्याग करना
सर्वं
कालकृतं मन्ये भवतां च यदप्रियम् ।
सपालो
यद्वशे लोको वायोरिव घनावलिः ॥ १४ ॥
यत्र
धर्मसुतो राजा गदापाणिर्वृकोदरः ।
कृष्णोऽस्त्री
गाण्डिवं चापं सुहृत् कृष्णः ततो विपत् ॥ १५ ॥
(भीष्मपितामह पांडवों से कह रहे हैं) जिस प्रकार बादल वायु के वश में रहते
हैं, वैसे ही लोकपालों के सहित सारा संसार कालभगवान् के
अधीन है। मैं समझता हूँ कि तुमलोगों के जीवन में ये जो अप्रिय घटनाएँ घटित हुई हैं,
वे सब उन्हीं की लीला हैं ॥ १४ ॥ नहीं तो जहाँ साक्षात् धर्मपुत्र
राजा युधिष्ठिर हों, गदाधारी भीमसेन और धनुर्धारी अर्जुन
रक्षाका काम कर रहे हों, गाण्डीव धनुष हो और स्वयं श्रीकृष्ण
सुहृद् हों—भला, वहाँ भी विपत्तिकी
सम्भावना है ? ॥ १५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से

No comments:
Post a Comment