॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--नवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)
युधिष्ठिरादिका
भीष्मजीके पास जाना और भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति
करते
हुए भीष्मजीका प्राणत्याग करना
तान्
समेतान् महाभागान् उपलभ्य वसूत्तमः ।
पूजयामास
धर्मज्ञो देशकालविभागवित् ॥ ९ ॥
कृष्णं
च तत्प्रभावज्ञ आसीनं जगदीश्वरम् ।
हृदिस्थं
पूजयामास माययोपात्त विग्रहम् ॥ १० ॥
पाण्डुपुत्रान्
उपासीनान् प्रश्रयप्रेमसङ्गतान् ।
अभ्याचष्टानुरागाश्रैः
अन्धीभूतेन चक्षुषा ॥ ११ ॥
अहो
कष्टमहोऽन्याय्यं यद् यूयं धर्मनन्दनाः ।
जीवितुं
नार्हथ क्लिष्टं विप्रधर्माच्युताश्रयाः ॥ १२ ॥
संस्थितेऽतिरथे
पाण्डौ पृथा बालप्रजा वधूः ।
युष्मत्कृते
बहून् क्लेशान् प्राप्ता तोकवती मुहुः ॥ १३ ॥
भीष्मपितामह
धर्मको और देश-कालके विभागको—कहाँ किस समय क्या करना चाहिये,
इस बातको जानते थे। उन्होंने उन बड़भागी ऋषियोंको सम्मिलित हुआ
देखकर उनका यथायोग्य सत्कार किया ॥ ९ ॥ वे भगवान् श्रीकृष्णका प्रभाव भी जानते
थे। अत: उन्होंने अपनी लीलासे मनुष्यका वेष धारण करके वहाँ बैठे हुए तथा
जगदीश्वरके रूपमें हृदयमें विराजमान भगवान् श्रीकृष्णकी बाहर तथा भीतर दोनों जगह
पूजा की ॥ १० ॥ पाण्डव बड़े विनय और प्रेमके साथ भीष्मपितामह के पास बैठ गये।
उन्हें देखकर भीष्म- पितामहकी आँखें प्रेमके आँसुओंसे भर गयीं। उन्होंने उनसे कहा—
॥ ११ ॥ ‘धर्मपुत्रो ! हाय ! हाय ! यह बड़े
कष्ट और अन्यायकी बात है कि तुमलोगोंको ब्राह्मण, धर्म और
भगवान्के आश्रित रहनेपर भी इतने कष्टके साथ जीना पड़ा, जिसके
तुम कदापि योग्य नहीं थे ॥ १२ ॥ अतिरथी पाण्डुकी मृत्युके समय तुम्हारी अवस्था
बहुत छोटी थी। उन दिनों तुमलोगोंके लिये कुन्तीरानीको और साथ-साथ तुम्हें भी
बार-बार बहुत-से कष्ट झेलने पड़े ॥ १३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से

No comments:
Post a Comment