॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--तीसरा अध्याय..(पोस्ट०५)
भगवान्के
अवतारोंका वर्णन
सुरासुराणां
उदधिं मथ्नतां मन्दराचलम् ।
दध्रे
कमठरूपेण पृष्ठ एकादशे विभुः ॥ १६ ॥
धान्वन्तरं
द्वादशमं त्रयोदशममेव च ।
अपाययत्
सुरान् अन्यान् मोहिन्या मोहयन् स्त्रिया ॥ १७ ॥
चतुर्दशं
नारसिंहं बिभ्रद् दैत्येन्द्रमूर्जितम् ।
ददार
करजैरुरौ एरकां कटकृत् यथा ॥ १८ ॥
जिस
समय देवता और दैत्य समुद्र-मन्थन कर रहे थे, उस समय ग्यारहवाँ
अवतार धारण करके कच्छपरूपसे भगवान्ने मन्दराचलको अपनी पीठपर धारण किया ॥ १६ ॥
बारहवीं बार धन्वन्तरिके रूपमें अमृत लेकर समुद्रसे प्रकट हुए और तेरहवीं बार
मोहिनीरूप धारण करके दैत्योंको मोहित करते हुए देवताओंको अमृत पिलाया ॥ १७ ॥
चौदहवें अवतारमें उन्होंने नरसिंहरूप धारण किया और अत्यन्त बलवान् दैत्यराज
हिरण्यकशिपुकी छाती अपने नखोंसे अनायास इस प्रकार फाड़ डाली, जैसे चटाई बनानेवाला सींकको चीर डालता है ॥ १८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से

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