॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--आठवाँ अध्याय..(पोस्ट १३)
गर्भमें
परीक्षित्की रक्षा,
कुन्तीके द्वारा भगवान्की स्तुति और युधिष्ठिरका शोक
सूत
उवाच ।
पृथयेत्थं
कलपदैः परिणूताखिलोदयः ।
मन्दं
जहास वैकुण्ठो मोहयन्निव मायया ॥ ४४ ॥
तां
बाढं इति उपामंत्र्य प्रविश्य गजसाह्वयम् ।
स्त्रियश्च
स्वपुरं यास्यन् प्रेम्णा राज्ञा निवारितः ॥ ४५ ॥
व्यासाद्यैरीश्वरेहा
ज्ञैः कृष्णेनाद्भुत कर्मणा ।
प्रबोधितोऽपि
इतिहासैः नाबुध्यत शुचार्पितः ॥ ४६ ॥
सूतजी
कहते हैं—इस प्रकार कुन्तीने बड़े मधुर शब्दोंमें भगवान्की अधिकांश लीलाओंका वर्णन
किया। यह सब सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण अपनी मायासे उसे मोहित करते हुए-से मन्द-मन्द
मुसकराने लगे ॥ ४४ ॥ उन्होंने कुन्तीसे कह दिया—‘अच्छा ठीक
है’ और रथके स्थान से वे हस्तिनापुर लौट आये। वहाँ कुन्ती और
सुभद्रा आदि देवियोंसे विदा लेकर जब वे जाने लगे, तब राजा
युधिष्ठिरने बड़े प्रेमसे उन्हें रोक लिया ॥ ४५ ॥ राजा युधिष्ठिरको अपने भाई-बन्धुओंके
मारे जानेका बड़ा शोक हो रहा था। भगवान्की लीलाका मर्म जाननेवाले व्यास आदि
महर्षियोंने और स्वयं अद्भुत चरित्र करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने भी अनेकों
इतिहास कहकर उन्हें समझानेकी बहुत चेष्टा की; परंतु उन्हें
सान्त्वना न मिली, उनका शोक न मिटा ॥ ४६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से

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