॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)
परीक्षित्
का जन्म
मातुर्गर्भगतो
वीरः स तदा भृगुनन्दन ।
ददर्श
पुरुषं कञ्चिद् दह्यमानोऽस्त्रतेजसा ॥ ७ ॥
अङ्गुष्ठमात्रममलं
स्फुरत् पुरट मौलिनम् ।
अपीव्यदर्शनं
श्यामं तडिद् वाससमच्युतम् ॥ ८ ॥
श्रीमद्
दीर्घचतुर्बाहुं तप्तकाञ्चन कुण्डलम् ।
क्षतजाक्षं
गदापाणिं आत्मनः सर्वतो दिशम् ।
परिभ्रमन्तं
उल्काभां भ्रामयन्तं गदां मुहुः ॥ ९ ॥
अस्त्रतेजः
स्वगदया नीहारमिव गोपतिः ।
विधमन्तं
सन्निकर्षे पर्यैक्षत क इत्यसौ ॥ १० ॥
विधूय
तदमेयात्मा भगवान् धर्मगुब् विभुः ।
मिषतो
दशमासस्य तत्रैवान्तर्दधे हरिः ॥ ११ ॥
(सूतजी
कहते हैं) शौनकजी ! उत्तरा के गर्भमें स्थित वह वीर शिशु परीक्षित् जब अश्वत्थामा
के ब्रह्मास्त्रके तेजसे जलने लगा, तब उसने देखा कि
उसकी आँखोंके सामने एक ज्योतिर्मय पुरुष है ॥ ७ ॥ वह देखनेमें तो अँगूठेभर का है,
परन्तु उसका स्वरूप बहुत ही निर्मल है। अत्यन्त सुन्दर श्याम शरीर
है, बिजलीके समान चमकता हुआ पीताम्बर धारण किये हुए है,
सिरपर सोने का मुकुट झिलमिला रहा है। उस निर्विकार पुरुषके बड़ी ही
सुन्दर लंबी-लंबी चार भुजाएँ हैं। कानोंमें तपाये हुए स्वर्णके सुन्दर कुण्डल हैं,
आँखोंमें लालिमा है, हाथमें लूके के समान जलती
हुई गदा लेकर उसे बार-बार घुमाता जा रहा है और स्वयं शिशुके चारों ओर घूम रहा है ॥
८-९ ॥ जैसे सूर्य अपनी किरणोंसे कुहरे को भगा देते हैं, वैसे
ही वह उस गदाके द्वारा ब्रह्मास्त्रके तेजको शान्त करता जा रहा था। उस पुरुषको
अपने समीप देखकर वह गर्भस्थ शिशु सोचने लगा कि यह कौन है ॥ १० ॥ इस प्रकार उस दस
मासके गर्भस्थ शिशु के सामने ही धर्मरक्षक अप्रमेय भगवान् श्रीकृष्ण
ब्रह्मास्त्रके तेजको शान्त करके वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ ११ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
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