॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--तीसरा अध्याय..(पोस्ट०२)
भगवान्के
अवतारोंका वर्णन
द्वितीयं
तु भवायास्य रसातलगतां महीम् ।
उद्धरिष्यन्
उपादत्त यज्ञेशः सौकरं वपुः ॥ ७ ॥
तृतीयं
ऋषिसर्गं वै देवर्षित्वमुपेत्य सः ।
तन्त्रं
सात्वतमाचष्ट नैष्कर्म्यं कर्मणां यतः ॥ ८ ॥
तुर्ये
धर्मकलासर्गे नरनारायणौ ऋषी ।
भूत्वात्मोपशमोपेतं
अकरोद् दुश्चरं तपः ॥ ९ ॥
दूसरी
बार इस संसारके कल्याणके लिये समस्त यज्ञोंके स्वामी उन भगवान्ने ही रसातलमें गयी
हुई पृथ्वीको निकाल लानेके विचारसे सूकररूप ग्रहण किया ॥ ७ ॥ ऋषियोंकी सृष्टिमें
उन्होंने देवर्षि नारदके रूपमें तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वत तन्त्रका (जिसे ‘नारद-पाञ्चरात्र’ कहते हैं) उपदेश किया; उसमें कर्मोंके द्वारा किस प्रकार कर्मबन्धनसे मुक्ति मिलती है, इसका वर्णन है ॥ ८ ॥ धर्मपत्नी मूर्तिके गर्भसे उन्होंने नर-नारायणके
रूपमें चौथा अवतार ग्रहण किया। इस अवतारमें उन्होंने ऋषि बनकर मन और इन्द्रियोंका
सर्वथा संयम करके बड़ी कठिन तपस्या की ॥ ९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से

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