॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--तीसरा अध्याय..(पोस्ट०१)
भगवान्के
अवतारोंका वर्णन
सूत
उवाच ।
जगृहे
पौरुषं रूपं भगवान् महदादिभिः ।
संभूतं
षोडशकलं आदौ लोकसिसृक्षया ॥। १ ॥
यस्याम्भसि
शयानस्य योगनिद्रां वितन्वतः ।
नाभिह्रदाम्बुजादासीद्
ब्रह्मा विश्वसृजां पतिः ॥ २ ॥
यस्यावयवसंस्थानैः
कल्पितो लोकविस्तरः ।
तद्
वै भगवतो रूपं विशुद्धं सत्त्वमूर्जितम् ॥। ३ ॥
पश्यन्त्यदो
रूपमदभ्रचक्षुषा
सहस्रपादोरुभुजाननाद्भुतम् ।
सहस्रमूर्धश्रवणाक्षिनासिकं
सहस्रमौल्यम्बरकुण्डलोल्लसत् ॥ ४ ॥
एतन्नानावताराणां
निधानं बीजमव्ययम् ।
यस्यांशांशेन
सृज्यन्ते देवतिर्यङ्नरादयः ॥ ५ ॥
स
एव प्रथमं देवः कौमारं सर्गमाश्रितः ।
चचार
दुश्चरं ब्रह्मा ब्रह्मचर्यमखण्डितम् ॥ ६ ॥
श्रीसूतजी
कहते हैं—सृष्टिके आदिमें भगवान्ने लोकोंके निर्माणकी इच्छा की। इच्छा होते ही
उन्होंने महत्तत्त्व आदिसे निष्पन्न पुरुषरूप ग्रहण किया। उसमें दस इन्द्रियाँ,
एक मन और पाँच भूत—ये सोलह कलाएँ थीं ॥ १ ॥
उन्होंने कारण-जलमें शयन करते हुए जब योगनिद्राका विस्तार किया, तब उनके नाभि-सरोवरमेंसे एक कमल प्रकट हुआ और उस कमलसे प्रजापतियोंके अधिपति
ब्रह्माजी उत्पन्न हुए ॥ २ ॥ भगवान्के उस विराट् रूपके अङ्ग-प्रत्यङ्गमें ही
समस्त लोकोंकी कल्पना की गयी है, वह भगवान्का विशुद्ध
सत्त्वमय श्रेष्ठ रूप है ॥ ३ ॥ योगीलोग दिव्यदृष्टिसे भगवान्के उस रूपका दर्शन
करते हैं। भगवान्का वह रूप हजारों पैर, जाँघें, भुजाएँ और मुखोंके कारण अत्यन्त विलक्षण हैं; उसमें
सहस्रों सिर, हजारों कान, हजारों आँखें
और हजारों नासिकाएँ हैं। हजारों मुकुट, वस्त्र और कुण्डल आदि
आभूषणोंसे वह उल्लसित रहता है ॥ ४ ॥ भगवान्का यही पुरुषरूप, जिसे नारायण कहते हैं, अनेक अवतारोंका अक्षय कोष है—इसीसे सारे अवतार प्रकट होते हैं। इस रूपके छोटे-से-छोटे अंशसे देवता,
पशु-पक्षी और मनुष्यादि योनियों की सृष्टि होती है ॥ ५ ॥ उन्हीं
प्रभुने पहले कौमारसर्ग में सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार—इन चार ब्राह्मणों के रूप में
अवतार ग्रहण करके अत्यन्त कठिन अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन किया ॥ ६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से

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