॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--दूसरा अध्याय..(पोस्ट०८)
भगवत्कथा
और भगवद्भक्तिका माहात्म्य
नानेव
भाति विश्वात्मा भूतेषु च तथा पुमान् ॥ ३२ ॥
असौ
गुणमयैर्भावैः भूत सूक्ष्मेन्द्रियात्मभिः ।
स्वनिर्मितेषु
निर्विष्टो भुङ्क्ते भूतेषु तद्गुणान् ॥ ३३ ॥
भावयत्येष
सत्त्वेन लोकान्वै लोकभावनः ।
लीलावतारानुरतो
देवतिर्यङ् नरादिषु ॥ ३४ ॥
अग्नि
तो वस्तुत: एक ही है,
परंतु जब वह अनेक प्रकारकी लकडिय़ोंमें प्रकट होती है तब अनेक-सी
मालूम पड़ती है। वैसे ही सबके आत्मरूप भगवान् तो एक ही हैं, परंतु प्राणियोंकी अनेकतासे अनेक-जैसे जान पड़ते हैं ॥ ३२ ॥ भगवान् ही
सूक्ष्म भूत—तन्मात्रा, इन्द्रिय तथा
अन्त:करण आदि गुणोंके विकारभूत भावोंके द्वारा नाना प्रकारकी योनियोंका निर्माण
करते हैं और उनमें भिन्न-भिन्न जीवोंके रूपमें प्रवेश करके उन-उन योनियोंके अनुरूप
विषयोंका उपभोग करते-कराते हैं ॥ ३३ ॥ वे ही सम्पूर्ण लोकोंकी रचना करते हैं और
देवता, पशु-पक्षी, मनुष्य आदि
योनियोंमें लीलावतार ग्रहण करके सत्त्वगुणके द्वारा जीवोंका पालन-पोषण करते हैं ॥
३४ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे
नैमिषीयोपाख्याने द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से

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