|| ॐ
नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पाँचवाँ अध्याय
(पोस्ट.०८)
धुन्धुकारी को
प्रेतयोनि की प्राप्ति और उससे उद्धार
अस्थिस्तम्भं
स्नायुबद्धं मांसशोणितलेपितम् ।
चर्मावनद्धं
दुर्गन्धं पात्रं मूत्रपुरीषयोः ॥ ५८ ॥
जराशोकविपाकार्तं
रोगमन्दिरमातुरम् ।
दूष्पूरं
दुर्धरं दुष्टं सदोषं क्षणभंगुरम् ॥ ५९ ॥
कृमिविड् भस्म
संज्ञान्तं शरीरं इति वर्णितम् ।
अस्थिरेण स्थिरं
कर्म कुतोऽयं साधयेत् न हि ॥ ६० ॥
यत्प्रातः
संस्कृतं चान्नं सायं तच्च विनश्यति ।
तदीयरससम्पुष्टे
काये का नाम नित्यता ॥ ६१ ॥
सप्ताहश्रवणात्
लोके प्राप्यते निकटे हरिः ।
अतो
दोषनिवृत्त्यर्थं एतद् एव हि साधनम् ॥ ६२ ॥
अस्थियाँ ही इस
शरीरके आधारस्तम्भ हैं, नस-नाडीरूप रस्सियोंसे यह बँधा हुआ है, ऊपरसे इसपर मांस और रक्त थोपकर इसे चर्मसे मँढ़ दिया गया है। इसके
प्रत्येक अङ्गमें दुर्गन्ध आती है; क्योंकि है तो यह
मल-मूत्रका भाण्ड ही ॥ ५८ ॥ वृद्धावस्था और शोकके कारण यह परिणाममें दु:खमय ही है, रोगोंका तो घर ही ठहरा। यह निरन्तर किसी-न-किसी कामनासे पीडि़त रहता है, कभी इसकी तृप्ति नहीं होती। इसे धारण किये रहना भी एक भार ही है; इसके रोम-रोममें दोष भरे हुए हैं और नष्ट होनेमें इसे एक क्षण भी नहीं
लगता ॥ ५९ ॥ अन्तमें यदि इसे गाड़ दिया जाता है तो इसके कीड़े बन जाते हैं; कोई पशु खा जाता है तो यह विष्ठा हो जाता है और अग्रिमें जला दिया जाता है
तो भस्मकी ढेरी हो जाता है। ये तीन ही इसकी गतियाँ बतायी गयी हैं। ऐसे अस्थिर
शरीरसे मनुष्य अविनाशी फल देनेवाला काम क्यों नहीं बना लेता ? ॥ ६० ॥ जो अन्न प्रात:काल पकाया जाता है, वह
सायंकालतक बिगड़ जाता है; फिर उसीके रससे पुष्ट हुए
शरीरकी नित्यता कैसी ॥ ६१ ॥ इस लोकमें सप्ताह-श्रवण करनेसे भगवान्की शीघ्र ही प्राप्ति हो सकती
है। अत: सब प्रकारके दोषोंकी निवृत्तिके लिये एकमात्र यही साधन है ॥ ६२ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से
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