|| ॐ
नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पाँचवाँ अध्याय
(पोस्ट.०६)
धुन्धुकारी को
प्रेतयोनि की प्राप्ति और उससे उद्धार
तत्र
संश्रवणार्थाय देशग्रामाज्जना ययुः ।
पङ्ग्वन्ध
वृद्धमन्दाश्च तेऽपि पापक्षयाय वै ॥ ४३ ॥
समाजस्तु
महाञ्जातो देवविस्मयकारकः ।
यदैवासनमास्थाय
गोकर्णोऽकथयत्कथाम् ॥ ४४ ॥
स प्रेतोऽपि
तदाऽऽयातः स्थानं पश्यन् इतस्ततः ।
सप्तग्रन्थियुतं
तत्र अपश्यत् कीचकमुछ्रितम् ॥ ४५ ॥
तन्मूलच्छिद्रमाविश्य
श्रवणार्थं स्थितौ ह्यसौ ।
वातरूपी स्थितिं
कर्तुं अशक्तो वंशमाविशत् ॥ ४६ ॥
वैष्णवं
ब्राह्मणं मुख्यं श्रोतारं परिकल्प्य सः ।
प्रथमस्कन्धतः
स्पष्टं आख्यानं धेनुजोऽकरत् ॥ ४७ ॥
दिनान्ते
रक्षिता गाथा तदा चित्रं बभूव ह ।
वंशैकग्रन्थिभेदोऽभूत्
सशब्दं पश्यतां सताम् ॥ ४८ ॥
द्वितीयेऽह्नि
तथा सायं द्वितीयग्रन्थिभेदनम् ।
तृतीयेऽह्नि तथा
सायं तृतीयग्रन्थिभेदनम् ॥ ४९ ॥
एवं
सप्तदिनैश्चैव सप्तग्रन्थिविभेदनम् ।
कृत्वा स
द्वादशस्कन्ध श्रवणात् प्रेततां जहौ ॥ ५० ॥
दिव्यरूपधरो
जातः तुलसीदाममंडितः ।
पीतवासा घनश्यमो
मुकुटी कुण्डलान्वितः ॥ ५१ ॥
ननाम भ्रातरं
सद्यो गोकर्णं इति चाब्रवीत् ।
त्वयाहं मोचितो
बन्धो कृपया प्रेतकश्मलात् ॥ ५२ ॥
देश और गाँवोंसे
अनेकों लोग (श्रीमद्भागवत की) कथा सुननेके लिये आये। बहुत-से लँगड़े-लूले, अंधे, बूढ़े और मन्दबुद्धि पुरुष भी अपने
पापोंकी निवृत्तिके उद्देश्यसे वहाँ आ पहुँचे ॥ ४३ ॥ इस प्रकार वहाँ इतनी भीड़ हो
गयी कि उसे देखकर देवताओंको भी आश्चर्य होता था। जब गोकर्णजी व्यासगद्दी पर बैठकर
कथा कहने लगे, तब वह प्रेत भी वहाँ आ पहुँचा और इधर-उधर
बैठनेके लिये स्थान ढूँढऩे लगा। इतनेमें ही उसकी दृष्टि एक सीधे रखे हुए सात
गाँठके बाँसपर पड़ी ॥ ४४-४५ ॥ उसीके नीचेके छिद्रमें घुसकर वह कथा सुननेके लिये
बैठ गया। वायुरूप होनेके कारण वह बाहर कहीं बैठ नहीं सकता था, इसलिये बाँसमें घुस गया ॥ ४६ ॥
गोकर्णजीने एक
वैष्णव ब्राह्मणको मुख्यश्रोता बनाया और प्रथमस्कन्धसे ही स्पष्ट स्वरमें कथा
सुनानी आरम्भ कर दी ॥ ४७ ॥ सायंकालमें जब कथाको विश्राम दिया गया, तब एक बड़ी विचित्र बात हुई। वहाँ सभासदोंके देखते-देखते उस बाँसकी एक
गाँठ तड़-तड़ शब्द करती फट गयी ॥ ४८ ॥ इसी प्रकार दूसरे दिन सायंकालमें दूसरी गाँठ
फटी और तीसरे दिन उसी समय तीसरी ॥ ४९ ॥ इस प्रकार सात दिनोंमें सातों गाँठोंको
फोडक़र धुन्धुकारी बारहों स्कन्धोंके सुननेसे पवित्र होकर प्रेतयोनिसे मुक्त हो गया
और दिव्यरूप धारण करके सबके सामने प्रकट हुआ। उसका मेघके समान श्याम शरीर पीताम्बर
और तुलसीकी मालाओंसे सुशोभित था तथा सिरपर मनोहर मुकुट और कानोंमें कमनीय कुण्डल
झिलमिला रहे थे ॥ ५०-५१ ॥ उसने तुरंत अपने भाई गोकर्णको प्रणाम करके कहा—‘भाई ! तुमने कृपा करके मुझे प्रेतयोनिकी यातनाओंसे मुक्त कर दिया ॥ ५२ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
शेष आगामी पोस्ट
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित
श्रीमद्भागवतमहापुराण(विशिष्टसंस्करण)पुस्तककोड1535 से
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