||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
चौथा
अध्याय (पोस्ट.०८)
गोकर्णोपाख्यान
प्रारम्भ
अथ
कालेन सा नारी प्रसूता बालकं तदा ।
आनीय
जनको बालं रहस्ये धुन्धुलीं ददौ ॥ ५६ ॥
तया
च कथितं भर्त्रे प्रसूतः सुखमर्भकः ।
लोकस्य
सुखमुत्पन्नं आत्मदेव प्रजोदयात् ॥ ५७ ॥
ददौ
दानं द्विजातिभ्यो जातकर्म विधाय च ।
गीतवादित्रघोषोऽभूत्
तद्द्वारं मंगलं बहु ॥ ५८ ॥
भर्तुरग्रेऽब्रवीत्
वाक्यं स्तन्यं नास्ति कुचे मम ।
अन्यस्तन्येन
निर्दुग्धा कथं पुष्णामि बालकम् ॥ ५९ ॥
मत्स्वसुश्च
प्रसूताया मृतो बालस्तु वर्तते ।
तामाकार्य
गृहे रक्ष सा तेऽर्भं पोषयिष्यति ॥ ६० ॥
पतिना
तत्कृतं सर्वं पुत्ररक्षणहेतवे ।
पुत्रस्य
धुन्धुकारीति नाम मात्रा प्रतिष्ठितन् ॥ ६१ ॥
त्रिमासे
निर्गते चाथ सा धेनुः सुषुवेऽर्भकम् ।
सर्वांगसुन्दरं
दिव्यं निर्मलं कनकप्रभम् ॥ ६२ ॥
दृष्ट्वा
प्रसन्नो विप्रस्तु संस्कारान् स्वयमादधे ।
मत्वाऽऽश्चर्यं
जनाः सर्वे दिदृक्षार्थं समागताः ॥ ६३ ॥
भाग्योदयोऽधुना
जात आत्मदेवस्य पश्यत ।
धेन्वा
बालः प्रसूतस्तु देवरूपीति कौतुकम् ॥ ६४ ॥
न
ज्ञातं तद्रहस्यं तु केनापि विधियोगतः ।
गोकर्णं
तं सुतं दृष्ट्वा गोकर्णं नाम चाकरोत् ॥ ६५ ॥
इसके
पश्चात् समयानुसार जब( ब्राह्मण की)उस स्त्रीके पुत्र हुआ, तब उसके पिता ने चुपचाप लाकर उसे धुन्धुली को दे दिया ॥ ५६ ॥ और उसने
आत्मदेव को सूचना दे दी कि मेरे सुखपूर्वक बालक हो गया है। इस प्रकार आत्मदेवके
पुत्र हुआ सुनकर सब लोगोंको बड़ा आनन्द हुआ ॥ ५७ ॥ ब्राह्मणने उसका
जातकर्म-संस्कार करके ब्राह्मणोंको दान दिया और उसके द्वारपर गाना-बजाना तथा अनेक
प्रकारके माङ्गलिक कृत्य होने लगे ॥ ५८ ॥ धुन्धुलीने अपने पतिसे कहा, ‘मेरे स्तनोंमें तो दूध ही नहीं है; फिर गौ आदि किसी
अन्य जीवके दूधसे मैं इस बालकका किस प्रकार पालन करूँगी ? ॥
५९ ॥ मेरी बहिनके अभी बालक हुआ था, वह मर गया है; उसे बुलाकर अपने यहाँ रख लें तो वह आपके इस बच्चेका पालन-पोषण कर लेगी’
॥ ६० ॥ तब पुत्र की रक्षाके लिये आत्मदेवने वैसा ही किया तथा
माता-धुन्धुलीने उस बालकका नाम धुन्धुकारी रखा ॥ ६१ ॥ इसके बाद तीन महीने बीतनेपर
उस गौके भी एक मनुष्याकार बच्चा हुआ। वह सर्वाङ्गसुन्दर, दिव्य,
निर्मल तथा सुवर्णकी-सी कान्तिवाला था ॥ ६२ ॥ उसे देखकर
ब्राह्मणदेवताको बड़ा आनन्द हुआ और उसने स्वयं ही उसके सब संस्कार किये। इस
समाचारसे और सब लोगोंको भी बड़ा आश्चर्य हुआ और वे बालकको देखनेके लिये आये ॥ ६३ ॥
तथा आपसमें कहने लगे,‘देखो, भाई ! अब
आत्मदेवका कैसा भाग्य उदय हुआ है ! कैसे आश्चर्यकी बात है कि गौके भी ऐसा दिव्यरूप
बालक उत्पन्न हुआ है’ ॥ ६४ ॥ दैवयोगसे इस गुप्त रहस्यका
किसीको भी पता न लगा। आत्मदेवने उस बालकके गौके-से कान देखकर उसका नाम ‘गोकर्ण’ रखा ॥ ६५ ॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तक कोड
1535 से

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