||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
चौथा
अध्याय (पोस्ट.०७)
गोकर्णोपाख्यान
प्रारम्भ
तरुणी
कुटिला तस्य सख्यग्रे च रुरोद ह ।
अहो
चिन्ता ममोत्पन्ना फलं चाहं न भक्ष्यये ॥ ४४ ॥
फलभक्षेण
गर्भः स्याद् गर्भेण उदरवृद्धिता ।
स्वल्पभक्षं
ततोऽशक्तिः गृहकार्यं कथं भवेत् ॥ ४५ ॥
दैवाद्
धाटी व्रजेद्ग्रामे पलायेद्गर्भिणी कथम् ।
शुकवत्
निवसेत् गर्भः तं कुक्षेः कथमुत्सृजेत् ॥ ४६ ॥
तिर्यक्
चेदागतो गर्भः तदा मे मरणं भवेत् ।
प्रसूतौ
दारुणं दुःखं सुकुमारी कथं सहे ॥ ४७ ॥
मन्दायां
मयि सर्वस्वं ननान्दा संहरेत् तदा ।
सत्यशौचादिनियमो
दुराराध्यः स दृश्यते ॥ ४८ ॥
लालने
पालने दुःखं प्रसूतायाश्च वर्तते ।
वन्ध्या
वा विधवा नारी सुखिनी चेति मे मतिः ॥ ४९ ॥
एवं
कुतर्कयोगेन तत्फलं नैव भक्षितम् ।
पत्या
पृष्टं फलं भुक्तं भुक्तं चेति तयेरितम् ॥ ५० ॥
एकदा
भगिनी तस्याः तद्गृहः स्वेच्छयाऽऽगता ।
तदग्रे
कथितं सर्वं चिन्तेयं महती हि मे ॥ ५१ ॥
दुर्बला
तेन दुःखेन ह्यनुजे करवाणि किम् ।
साब्रवीत्
मम गर्भोस्ति तं दास्यामि प्रसूतितः ॥ ५२ ॥
तावत्कालं
सगर्भेव गुप्ता तिष्ठ गृहे सुखम् ।
वित्तं
त्वं मत्पतेर्यच्छ स ते दास्यति बालकम् ॥ ५३ ॥
षण्मासिको
मृतो बाल इति लोको वदिष्यति ।
तं
बालं पोषयिष्यामि नित्यमागत्य ते गृहे ॥ ५४ ॥
फलमर्पय
धेन्वै त्वं परीक्षार्थं तु साम्प्रतम् ।
तत्
तद् आचरितं सर्वं तथैव स्त्रीस्वभावतः ॥ ५५ ॥
उस(ब्राह्मण)की
स्त्री तो कुटिल स्वभावकी थी ही, वह रो-रोकर अपनी एक सखीसे कहने
लगी—‘सखी ! मुझे तो बड़ी चिन्ता हो गयी, मैं तो यह फल नहीं खाऊँगी ॥ ४४ ॥ फल खानेसे गर्भ रहेगा और गर्भसे पेट बढ़
जायगा। फिर कुछ खाया-पीया जायेगा नहीं, इससे मेरी शक्ति
क्षीण हो जायगी; तब बता, घर का धंधा
कैसे होगा ? ॥ ४५ ॥ और—दैववश—यदि कहीं गाँव में डाकुओं का आक्रमण हो गया तो गर्भिणी स्त्री कैसे
भागेगी। यदि शुकदेवजी की तरह यह गर्भ भी पेट में ही रह गया तो इसे बाहर कैसे
निकाला जायगा ॥ ४६ ॥ और कहीं प्रसवकालके समय वह टेढ़ा हो गया तो फिर प्राणोंसे ही
हाथ धोना पड़ेगा। यों भी प्रसवके समय बड़ी भयंकर पीड़ा होती है; मैं सुकुमारी भला, यह सब कैसे सह सकूँगी ? ॥ ४७ ॥ मैं जब दुर्बल पड़ जाऊँगी, तब ननदरानी आकर
घरका सब माल-मता समेट ले जायँगी। और मुझसे तो सत्य-शौचादि नियमोंका पालन होना भी
कठिन ही जान पड़ता है ॥ ४८ ॥ जो स्त्री बच्चा जनती है, उसे
उस बच्चेके लालन-पालनमें भी बड़ा कष्ट होता है। मेरे विचारसे तो वन्ध्या या विधवा
स्त्रियाँ ही सुखी हैं’ ॥ ४९ ॥
मनमें
ऐसे ही तरह-तरहके कुतर्क उठनेसे उसने वह फल नहीं खाया और जब उसके पतिने पूछा—‘फल खा लिया ?’ तब उसने कह दिया—‘हाँ, खा लिया’ ॥ ५० ॥ एक दिन
उसकी बहिन अपने-आप ही उसके घर आयी; तब उसने अपनी बहिनको सारा
वृत्तान्त सुनाकर कहा कि ‘मेरे मनमें इसकी बड़ी चिन्ता है ॥
५१ ॥ मैं इस दु:खके कारण दिनोंदिन दुबली हो रही हूँ। बहिन ! मैं क्या करूँ ?’
बहिनने कहा, ‘मेरे पेटमें बच्चा है, प्रसव होनेपर वह बालक मैं तुझे दे दूँगी ॥ ५२ ॥ तबतक तू गर्भवतीके समान
घरमें गुप्तरूपसे सुखसे रह। तू मेरे पतिको कुछ धन दे देगी तो वे तुझे अपना बालक दे
देंगे ॥ ५३ ॥ (हम ऐसी युक्ति करेंगी) कि जिसमें सब लोग यही कहें कि ‘इसका बालक छ: महीनेका होकर मर गया और मैं नित्यप्रति तेरे घर आकर उस
बालकका पालन-पोषण करती रहूँगी ॥ ५४ ॥ तू इस समय इसकी जाँच करनेके लिये यह फल गौको
खिला दे।’ ब्राह्मणीने स्त्रीस्वभाववश जो-जो उसकी बहिनने कहा
था, वैसे ही सब किया ॥ ५५ ॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित
श्रीमद्भागवतमहापुराण(विशिष्टसंस्करण)पुस्तककोड1535 से

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