||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
चौथा
अध्याय (पोस्ट.०९)
गोकर्णोपाख्यान
प्रारम्भ
कियत्कालेन
तौ जातौ तरुणौ तनयावुभौ ।
गोकर्णः
पण्डितो ज्ञानी धुन्धुकारी महाखलः ॥ ६६ ॥
स्नानशौचक्रियाहीनो
दुर्भक्षी क्रोधवर्जितः ।
दुष्परिग्रहकर्ता
च शवहस्तेन भोजनम् ॥ ६७ ॥
चौरः
सर्वजनद्वेषी परवेश्मप्रदीपकः ।
लालनायार्भकान्
धृत्वा सद्यः कूपे न्यपातयत् ॥ ६८ ॥
हिंसकः
शस्त्रधारी च दीनान्धानां प्रपीडकः ।
चाण्डालाभिरतो
नित्यं पाशहस्तः श्वसंगतः ॥ ६९ ॥
तेन
वेश्याकुसंगेन पित्र्यं वित्तं तु नाशितम् ।
एकदा
पितरौ ताड्य पात्राणि स्वयमाहरत् ॥ ७० ॥
तत्पिता
कृपणः प्रोच्चैः धनहीनो रुरोद ह ।
वध्यतवं
तु समीचीनं कुपुत्रो दुःखदायकः ॥ ७१ ॥
क्व
तिष्ठामि क्व गच्छामि को मे दुःखं व्यपोहयेत् ।
प्राणान्
त्यजामि दुःखेन हा कष्टं मम संस्थितम् ॥ ७२ ॥
तदानीं
तु समागत्य गोकर्णो ज्ञानसंयुतः ।
बोधयामास
जनकं वैराग्यं परिदर्शयन् ॥ ७३ ॥
असारः
खलु संसारो दुःखरूपी विमोहकः ।
सुतः
कस्य धनं कस्य स्नेहवान् ज्वलतेऽनिशम् ॥ ७४ ॥
ते
च इंद्रस्य सुखं किंचित् न सुखं चक्रवर्तिनः ।
सुखमस्ति
विरक्तस्य मुनेः एकान्तजीविनः ॥ ७५ ॥
मुञ्च
अज्ञानं प्रजारूपं मोहतो नरके गतिः ।
निपतिष्यति
देहोऽयं सर्वं त्यक्त्वा वनं व्रज ॥ ७६ ॥
कुछ
काल बीतनेपर वे दोनों बालक जवान हो गये। उनमें गोकर्ण तो बड़ा पंडित और ज्ञानी हुआ, किन्तु धुन्धुकारी बड़ा ही दुष्ट निकला ॥ ६६ ॥ स्नान-शौचादि ब्राह्मणोचित
आचारोंका उसमें नाम भी न था और न खान-पानका ही कोई परहेज था। क्रोध उसमें बहुत
बढ़ा-चढ़ा था। वह बुरी- बुरी वस्तुओंका संग्रह किया करता था। मुर्देके हाथसे छुआया
हुआ अन्न भी खा लेता था ॥ ६७ ॥ दूसरोंकी चोरी करना और सब लोगोंसे द्वेष बढ़ाना
उसका स्वभाव बन गया था। छिपे-छिपे वह दूसरोंके घरोंमें आग लगा देता था। दूसरोंके
बालकोंको खेलानेके लिये गोदमें लेता और उन्हें चट कुएँमें डाल देता ॥ ६८ ॥ हिंसाका
उसे व्यसन-सा हो गया था। हर समय वह अस्त्र-शस्त्र धारण किये रहता और बेचारे अंधे
और दीन-दुखियोंको व्यर्थ तंग करता। चाण्डालोंसे उसका विशेष प्रेम था; बस, हाथमें फंदा लिये कुत्तोंकी टोलीके साथ शिकारकी
टोहमें घूमता रहता ॥ ६९ ॥ वेश्याओंके जालमें फँसकर उसने अपने पिताकी सारी सम्पत्ति
नष्ट कर दी। एक दिन माता-पिताको मार-पीटकर घरके सब बर्तन-भाँड़े उठा ले गया ॥ ७० ॥
इस प्रकार जब सारी सम्पत्ति स्वाहा हो गयी, तब उसका कृपण
पिता फूट-फूटकर रोने लगा और बोला—‘इससे तो इसकी माँका बाँझ
रहना ही अच्छा था; कुपुत्र तो बड़ा ही दु:खदायी होता है ॥ ७१
॥ अब मैं कहाँ रहूँ ? कहाँ जाऊँ ? मेरे
इस संकटको कौन काटेगा ? हाय ! मेरे ऊपर तो बड़ी विपत्ति आ
पड़ी है, इस दु:खके कारण अवश्य मुझे एक दिन प्राण छोडऩे
पड़ेंगे ॥ ७२ ॥ उसी समय परम ज्ञानी गोकर्णजी वहाँ आये और उन्होंने पिताको
वैराग्यका उपदेश करते हुए बहुत समझाया ॥ ७३ ॥ वे बोले,‘पिताजी
! यह संसार असार है। यह अत्यन्त दु:खरूप और मोहमें डालनेवाला है। पुत्र किसका ?
धन किसका ? स्नेहवान् पुरुष रात-दिन दीपकके
समान जलता रहता है ॥ ७४ ॥ सुख न तो इन्द्रको है और न चक्रवर्ती राजाको ही; सुख है तो केवल विरक्त, एकान्तजीवी मुनिको ॥ ७५ ॥ ‘यह मेरा पुत्र है’ इस अज्ञानको छोड़ दीजिये। मोहसे
नरककी प्राप्ति होती है। यह शरीर तो नष्ट होगा ही। इसीलिये सब कुछ छोडक़र वनमें चले
जाइये ॥ ७६ ॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तक कोड
1535 से

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