Monday, December 11, 2017

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य तीसरा अध्याय (पोस्ट.१०)



|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
तीसरा अध्याय (पोस्ट.१०)

भक्तिके कष्टकी निवृत्ति

सूत उवाच –

एवं नगाहश्रवणोरुधर्मे
     प्रकाश्यमाने ऋषिभिः सभायाम् ।
आश्चर्यमेकं समभूत् तदानीं
     तदुच्यते संश्रृणु शौनको त्वम् ॥ ६६ ॥
भक्तिः सुतौ तौ तरुणौ गृहीत्वा
     प्रेमैकरूपा सहसाऽविरासीत् ।
श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे
     नाथेति नामानि मुहुर्वदन्ती ॥ ६७ ॥
तां चागतां भागवतार्थभूषां
     सुचारुवेषां ददृशुः सदस्याः ।
कथं प्रविष्टा कथमागतेयं
     मध्ये मुनीनामिति तर्कयन्तः ॥ ६८ ॥
ऊचुः कुमारा वचनं तदानीं
     कथार्थतो निश्पतिताधुनेयम् ।
एवं गिरः सा ससुता निशम्य
     सनत्कुमारं निजगाद नम्रा ॥ ६९ ॥

भक्तिरुवाच –

भवद्‌भिः अद्यैव कृतास्मि पुष्टा
     कलिप्रणष्टापि कथारसेन ।
क्वाहं तु तिष्ठाम्यधुना ब्रुवन्तु
     ब्राह्मा इदं तां गिरमूचिरे ते ॥ ७० ॥
भक्तेषु गोविन्दसरूपकर्त्री
     प्रेमैकधर्त्री भवरोगहन्त्री ।
सा त्वं च तिष्ठस्व सुधैर्यसंश्रया
     निरंतरं वैष्णवमानसानि ॥ ७१ ॥
ततोऽपि दोषाः कलिजा इमे त्वां
     द्रष्टुं न शक्ताः प्रभवोऽपि लोके ।
एवं तदाज्ञावसरेऽपि भक्तिः
     तदा निषण्णा हरिदासचित्ते ॥ ७२ ॥

सूतजी कहते हैंशौनकजी ! जिस समय सनकादि मुनीश्वर इस प्रकार सप्ताहश्रवणकी महिमाका बखान कर रहे थे, उस सभामें एक बड़ा आश्चर्य हुआ; उसे मैं तुम्हें बतलाता हूँ, सुनो ॥ ६६ ॥ वहाँ तरुणावस्थाको प्राप्त हुए अपने दोनों पुत्रोंको साथ लिये विशुद्ध प्रेमरूपा भक्ति बार-बार श्रीकृष्ण ! गोविन्द ! हरे ! मुरारे ! हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव !आदि भगवन्नामोंका उच्चारण करती हुई अकस्मात् प्रकट हो गयीं ॥ ६७ ॥ सभी सदस्योंने देखा कि परम सुन्दरी भक्तिरानी भागवतके अर्थोंका आभूषण पहने वहाँ पधारीं। मुनियोंकी उस सभामें सभी यह तर्क-वितर्क करने लगे कि ये यहाँ कैसे आयीं, कैसे प्रविष्ट हुर्ईं ॥ ६८ ॥ तब सनकादिने कहा—‘ये भक्तिदेवी अभी-अभी कथाके अर्थसे निकली हैं।उनके ये वचन सुनकर भक्तिने अपने पुत्रोंसमेत अत्यन्त विनम्र होकर सनत्कुमारजीसे कहा ॥ ६९ ॥
भक्ति बोलींमैं कलियुगमें नष्टप्राय हो गयी थी, आपने कथामृतसे सींचकर मुझे फिर पुष्ट कर दिया। अब आप यह बताइये कि मैं कहाँ रहूँ ? यह सुनकर सनकादिने उससे कहा॥ ७० ॥ तुम भक्तोंको भगवान्‌का स्वरूप प्रदान करनेवाली, अनन्यप्रेमका सम्पादन करनेवाली और संसार- रोगको निर्मूल करनेवाली हो; अत: तुम धैर्य धारण करके नित्य-निरन्तर विष्णुभक्तोंके हृदयोंमें ही निवास करो ॥ ७१ ॥ ये कलियुगके दोष भले ही सारे संसारपर अपना प्रभाव डालें, किन्तु वहाँ तुमपर इनकी दृष्टि भी नहीं पड़ सकेगी।इस प्रकार उनकी आज्ञा पाते ही भक्ति तुरन्त भगवद्भक्तोंके हृदयोंमें जा विराजीं ॥ ७२ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से 


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