||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
तीसरा
अध्याय (पोस्ट.१०)
भक्तिके
कष्टकी निवृत्ति
सूत
उवाच –
एवं
नगाहश्रवणोरुधर्मे
प्रकाश्यमाने ऋषिभिः सभायाम् ।
आश्चर्यमेकं
समभूत् तदानीं
तदुच्यते संश्रृणु शौनको त्वम् ॥ ६६ ॥
भक्तिः
सुतौ तौ तरुणौ गृहीत्वा
प्रेमैकरूपा सहसाऽविरासीत् ।
श्रीकृष्ण
गोविन्द हरे मुरारे
नाथेति नामानि मुहुर्वदन्ती ॥ ६७ ॥
तां
चागतां भागवतार्थभूषां
सुचारुवेषां ददृशुः सदस्याः ।
कथं
प्रविष्टा कथमागतेयं
मध्ये मुनीनामिति तर्कयन्तः ॥ ६८ ॥
ऊचुः
कुमारा वचनं तदानीं
कथार्थतो निश्पतिताधुनेयम् ।
एवं
गिरः सा ससुता निशम्य
सनत्कुमारं निजगाद नम्रा ॥ ६९ ॥
भक्तिरुवाच
–
भवद्भिः
अद्यैव कृतास्मि पुष्टा
कलिप्रणष्टापि कथारसेन ।
क्वाहं
तु तिष्ठाम्यधुना ब्रुवन्तु
ब्राह्मा इदं तां गिरमूचिरे ते ॥ ७० ॥
भक्तेषु
गोविन्दसरूपकर्त्री
प्रेमैकधर्त्री भवरोगहन्त्री ।
सा
त्वं च तिष्ठस्व सुधैर्यसंश्रया
निरंतरं वैष्णवमानसानि ॥ ७१ ॥
ततोऽपि
दोषाः कलिजा इमे त्वां
द्रष्टुं न शक्ताः प्रभवोऽपि लोके ।
एवं
तदाज्ञावसरेऽपि भक्तिः
तदा निषण्णा हरिदासचित्ते ॥ ७२ ॥
सूतजी
कहते हैं—शौनकजी ! जिस समय सनकादि मुनीश्वर इस प्रकार सप्ताहश्रवणकी महिमाका बखान
कर रहे थे, उस सभामें एक बड़ा आश्चर्य हुआ; उसे मैं तुम्हें बतलाता हूँ, सुनो ॥ ६६ ॥ वहाँ
तरुणावस्थाको प्राप्त हुए अपने दोनों पुत्रोंको साथ लिये विशुद्ध प्रेमरूपा भक्ति
बार-बार ‘श्रीकृष्ण ! गोविन्द ! हरे ! मुरारे ! हे नाथ !
नारायण ! वासुदेव !’ आदि भगवन्नामोंका उच्चारण करती हुई
अकस्मात् प्रकट हो गयीं ॥ ६७ ॥ सभी सदस्योंने देखा कि परम सुन्दरी भक्तिरानी
भागवतके अर्थोंका आभूषण पहने वहाँ पधारीं। मुनियोंकी उस सभामें सभी यह तर्क-वितर्क
करने लगे कि ये यहाँ कैसे आयीं, कैसे प्रविष्ट हुर्ईं ॥ ६८ ॥
तब सनकादिने कहा—‘ये भक्तिदेवी अभी-अभी कथाके अर्थसे निकली
हैं।’ उनके ये वचन सुनकर भक्तिने अपने पुत्रोंसमेत अत्यन्त
विनम्र होकर सनत्कुमारजीसे कहा ॥ ६९ ॥
भक्ति
बोलीं—मैं कलियुगमें नष्टप्राय हो गयी थी, आपने कथामृतसे
सींचकर मुझे फिर पुष्ट कर दिया। अब आप यह बताइये कि मैं कहाँ रहूँ ? यह सुनकर सनकादिने उससे कहा— ॥ ७० ॥ ‘तुम भक्तोंको भगवान्का स्वरूप प्रदान करनेवाली, अनन्यप्रेमका
सम्पादन करनेवाली और संसार- रोगको निर्मूल करनेवाली हो; अत:
तुम धैर्य धारण करके नित्य-निरन्तर विष्णुभक्तोंके हृदयोंमें ही निवास करो ॥ ७१ ॥
ये कलियुगके दोष भले ही सारे संसारपर अपना प्रभाव डालें, किन्तु
वहाँ तुमपर इनकी दृष्टि भी नहीं पड़ सकेगी।’ इस प्रकार उनकी
आज्ञा पाते ही भक्ति तुरन्त भगवद्भक्तोंके हृदयोंमें जा विराजीं ॥ ७२ ॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से

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