||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
तीसरा
अध्याय (पोस्ट.११)
भक्तिके
कष्ट की निवृत्ति
सकलभुवनमध्ये
निर्धनास्तेऽपि धन्या
निवसति हृदि येषां श्रीहरेर्भक्तिरेका ।
हरिरपि
निजलोकं सर्वथातो विहाय
प्रविशति हृदि तेषां भक्तिसूत्रोपनद्धः ॥ ७३
॥
ब्रूमोऽद्य
ते किमधिकं महमानमेवं
ब्रह्मात्मकस्य भुवि भागवताभिधस्य ।
यत्संश्रयात्
निगदिते लभते सुवक्ता
श्रोतापि कृष्णसमतामलमन्यधर्मैः ॥ ७४ ॥
जिनके
हृदयमें एकमात्र श्रीहरिकी भक्ति निवास करती है; वे
त्रिलोकीमें अत्यन्त निर्धन होनेपर भी परम धन्य हैं; क्योंकि
इस भक्तिकी डोरीसे बँधकर तो साक्षात् भगवान् भी अपना परमधाम छोडक़र उनके हृदयमें
आकर बस जाते हैं ॥ ७३ ॥ भूलोकमें यह भागवत साक्षात् परब्रह्मका विग्रह है, हम इसकी महिमा कहाँतक वर्णन करें। इसका आश्रय लेकर इसे सुनानेसे तो सुनने
और सुनाने- वाले दोनोंको ही भगवान् श्रीकृष्णकी समता प्राप्त हो जाती है। अत: इसे
छोडक़र अन्य धर्मोंसे क्या प्रयोजन है ॥ ७४ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
इति
श्रीपद्मपुराणे उत्तरखण्डे श्रीमद्भागवतमाहात्म्ये
भक्तिकष्टनिवर्तनं
नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से

No comments:
Post a Comment