Monday, December 11, 2017

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य तीसरा अध्याय (पोस्ट.०९)



|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
तीसरा अध्याय (पोस्ट.०९)

भक्तिके कष्टकी निवृत्ति

इति उद्धववचः श्रुत्वा प्रभासेऽचिन्तयत् हरिः ।
भक्तावलम्बनार्थाय किं विधेयं मयेति च ॥ ६० ॥
स्वकीयं यद् भवेत् तेजः तच्च भागवतेऽदधात् ।
तिरोधाय प्रविष्टोऽयं श्रीमद् भागवतार्णवम् ॥ ६१ ॥
तेनेयं वाङ्‌मयी मूर्तिः प्रत्यक्षा वर्तते हरेः ।
सेवनात् श्रवणात् पाठात् दर्शनात् पापनाशिनी ॥ ६२ ॥
सप्ताहश्रवणं तेन सर्वेभ्योऽप्यधिकं कृतम् ।
साधनानि तिरस्कृत्य कलौ धर्मोऽयमीरितः ॥ ६३ ॥
दुःखदारिद्र्य दौर्भाग्य पापप्रक्षालनाय च ।
कामक्रोध जयार्थं हि कलौ धर्मोऽयमीरितः ॥ ६४ ॥
अन्यथा वैष्णवी माया देवैरपि सुदुस्त्यजा ।
कथं त्याज्या भवेत् पुम्भिः सप्ताहोऽतः प्रकीर्तितः ॥ ६५ ॥

प्रभासक्षेत्रमें उद्धवजीके ये वचन सुनकर भगवान्‌ सोचने लगे कि भक्तोंके अवलम्बके लिये मुझे क्या व्यवस्था करनी चाहिये ॥ ६० ॥ शौनकजी ! तब भगवान्‌ने अपनी सारी शक्ति भागवतमें रख दी; वे अन्तर्धान होकर इस भागवतसमुद्रमें प्रवेश कर गये ॥ ६१ ॥ इसलिये यह भगवान्‌की साक्षात् शब्दमयी मूर्ति है। इसके सेवन, श्रवण, पाठ अथवा दर्शनसे ही मनुष्यके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं ॥ ६२ ॥ इसीसे इसका सप्ताहश्रवण सबसे बढक़र माना गया है और कलियुगमें तो अन्य सब साधनोंको छोडक़र यही प्रधान धर्म बताया गया है ॥ ६३ ॥ कलिकालमें यही ऐसा धर्म है, जो दु:ख, दरिद्रता, दुर्भाग्य और पापोंकी सफाई कर देता है तथा काम-क्रोधादि शत्रुओंपर विजय दिलाता है ॥ ६४ ॥ अन्यथा, भगवान्‌की इस मायासे पीछा छुड़ाना देवताओंके लिये भी कठिन है, मनुष्य तो इसे छोड़ ही कैसे सकते हैं। अत: इससे छूटनेके लिये भी सप्ताहश्रवणका विधान किया गया है ॥ ६५ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से 


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