||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
तीसरा
अध्याय (पोस्ट.०९)
भक्तिके
कष्टकी निवृत्ति
इति
उद्धववचः श्रुत्वा प्रभासेऽचिन्तयत् हरिः ।
भक्तावलम्बनार्थाय
किं विधेयं मयेति च ॥ ६० ॥
स्वकीयं
यद् भवेत् तेजः तच्च भागवतेऽदधात् ।
तिरोधाय
प्रविष्टोऽयं श्रीमद् भागवतार्णवम् ॥ ६१ ॥
तेनेयं
वाङ्मयी मूर्तिः प्रत्यक्षा वर्तते हरेः ।
सेवनात्
श्रवणात् पाठात् दर्शनात् पापनाशिनी ॥ ६२ ॥
सप्ताहश्रवणं
तेन सर्वेभ्योऽप्यधिकं कृतम् ।
साधनानि
तिरस्कृत्य कलौ धर्मोऽयमीरितः ॥ ६३ ॥
दुःखदारिद्र्य
दौर्भाग्य पापप्रक्षालनाय च ।
कामक्रोध
जयार्थं हि कलौ धर्मोऽयमीरितः ॥ ६४ ॥
अन्यथा
वैष्णवी माया देवैरपि सुदुस्त्यजा ।
कथं
त्याज्या भवेत् पुम्भिः सप्ताहोऽतः प्रकीर्तितः ॥ ६५ ॥
प्रभासक्षेत्रमें
उद्धवजीके ये वचन सुनकर भगवान् सोचने लगे कि भक्तोंके अवलम्बके लिये मुझे क्या
व्यवस्था करनी चाहिये ॥ ६० ॥ शौनकजी ! तब भगवान्ने अपनी सारी शक्ति भागवतमें रख
दी;
वे अन्तर्धान होकर इस भागवतसमुद्रमें प्रवेश कर गये ॥ ६१ ॥ इसलिये
यह भगवान्की साक्षात् शब्दमयी मूर्ति है। इसके सेवन, श्रवण,
पाठ अथवा दर्शनसे ही मनुष्यके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं ॥ ६२ ॥
इसीसे इसका सप्ताहश्रवण सबसे बढक़र माना गया है और कलियुगमें तो अन्य सब साधनोंको
छोडक़र यही प्रधान धर्म बताया गया है ॥ ६३ ॥ कलिकालमें यही ऐसा धर्म है, जो दु:ख, दरिद्रता, दुर्भाग्य
और पापोंकी सफाई कर देता है तथा काम-क्रोधादि शत्रुओंपर विजय दिलाता है ॥ ६४ ॥
अन्यथा, भगवान्की इस मायासे पीछा छुड़ाना देवताओंके लिये भी
कठिन है, मनुष्य तो इसे छोड़ ही कैसे सकते हैं। अत: इससे
छूटनेके लिये भी सप्ताहश्रवणका विधान किया गया है ॥ ६५ ॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से
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