||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
तीसरा
अध्याय (पोस्ट.०७)
भक्तिके
कष्टकी निवृत्ति
मनोवृत्तिजयश्चैव
नियमाचरणं तथा ।
दीक्षां
कर्तुं अशक्यत्वात् सप्ताहश्रवणं मतम् ॥ ४७ ॥
श्रद्धातः
श्रवणे नित्यं माघे तावद्धि यत्फलम् ।
तत्फलं
शुकदेवेन सप्ताहश्रवणे कृतम् ॥ ४८ ॥
मनसश्च
अजयात् रोगात् पुंसां चैवायुषः क्षयात् ।
कलेर्दोषबहुत्वाच्च
सप्ताहश्रवणं मतम् ॥ ४९ ॥
यत्फलं
नास्ति तपसा न योगेन समाधिना ।
अनायासेन
तत्सर्वं सप्ताहश्रवणे लभेत् ॥ ५० ॥
यज्ञात्
गर्जति सप्ताहः सप्ताहो गर्जति व्रतात् ।
तपसो
गर्जति प्रोच्चैः तीर्थान्नित्यं हि गर्जति ॥ ५१ ॥
योगात्
गर्जति सप्ताहो ध्यानात् ज्ञानाच्च गर्जति ।
किं
ब्रूमो गर्जनं तस्य रे रे गर्जति गर्जति ॥ ५२ ॥
शौनक
उवाच –
साश्चर्यमेतत्कथितं
कथानकं
ज्ञानादिधर्मान् विगणय्य साम्प्रतम् ।
निःश्रेयसे
भागवतं पुराणं
जातं कुतो योगविदादिसूचकम् ॥ ५३ ॥
कलियुगमें
बहुत दिनों तक चित्त की वृत्तियों को वशमें रखना, नियमों में
बँधे रहना और किसी पुण्यकार्य के लिये दीक्षित रहना कठिन है; इसलिये सप्ताह- श्रवणकी विधि है ॥ ४७ ॥ श्रद्धापूर्वक कभी भी श्रवण करने से
अथवा माघमास में श्रवण करने से जो फल होता है, वही फल
श्रीशुकदेवजी ने सप्ताहश्रवण में निर्धारित किया है ॥ ४८ ॥ मनके असंयम, रोगोंकी बहुलता और आयुकी अल्पताके कारण तथा कलियुगमें अनेकों दोषोंकी
सम्भावनासे ही सप्ताहश्रवणका विधान किया गया है ॥ ४९ ॥ जो फल तप, योग और समाधिसे भी प्राप्त नहीं हो सकता, वह
सर्वाङ्गरूप में सप्ताह श्रवणसे सहज में ही मिल जाता है ॥ ५० ॥ सप्ताहश्रवण यज्ञ से
बढक़र है, व्रतसे बढक़र है, तपसे कहीं
बढक़र है। तीर्थसेवनसे तो सदा ही बड़ा है, योगसे बढक़र है—यहाँतक कि ध्यान और ज्ञानसे भी बढक़र है, अजी ! इसकी
विशेषताका कहाँतक वर्णन करें, यह तो सभीसे बढ़-चढक़र है ॥
५१-५२ ॥
शौनकजीने
पूछा—सूतजी ! यह तो आपने बड़े आश्चर्यकी बात कही। अवश्य ही यह भागवत-पुराण
योगवेत्ता ब्रह्माजीके भी आदिकारण श्रीनारायणका निरूपण करता है; परन्तु यह मोक्षकी प्राप्तिमें ज्ञानादि सभी साधनोंका तिरस्कार करके इस
युगमें उनसे भी कैसे बढ़ गया ? ॥ ५३ ॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण(विशिष्टसंस्करण)पुस्तककोड1535
से

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