||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
तीसरा
अध्याय (पोस्ट.०८)
भक्तिके
कष्टकी निवृत्ति
सूत
उवाच –
यदा
कृष्णो धरां त्यक्त्वा स्वपदं गन्तुमुद्यतः ।
एकादशं
परिश्रुत्यापि उद्धवो वाक्यमब्रवीत् ॥ ५४ ॥
उद्धव
उवाच –
त्वं
तु यास्यसि गोविन्द भक्तकार्यं विधाय च ।
मच्चित्ते
महती चिन्ता तां श्रुत्वा सुखमावह ॥ ५५ ॥
आगतोऽयं
कलिर्घोरो भविष्यन्ति पुनः खलाः ।
तत्संगेनैव
सन्तोऽपि गमिष्यन्ति उग्रतां यदा ॥ ५६ ॥
तदा
भारवती भूमिः गोरूपेयं कमाश्रयेत् ।
अन्यो
न दृश्यते त्राता त्वत्तः कमललोचन ॥ ५७ ॥
अतः
सस्तु दयां कृत्वा भक्तवत्सल मा व्रज ।
भक्तार्थं
सगुणो जातो निराकारोऽपि चिन्मयः ॥ ५८ ॥
त्वद्
वियोगेन ते भक्ताः कथं स्थास्यन्ति भूतले ।
निर्गुणोपासने
कष्टं अतः किंचिद् विचारय ॥ ५९ ॥
सूतजीने
कहा—शौनकजी ! जब भगवान् श्रीकृष्ण इस धराधामको छोडक़र अपने नित्यधामको जाने
लगे, तब उनके मुखारविन्दसे एकादश स्कन्धका ज्ञानोपदेश सुनकर
भी उद्धवजीने पूछा ॥ ५४ ॥
उद्धवजी
बोले—गोविन्द ! अब आप तो अपने भक्तोंका कार्य करके परमधामको पधारना चाहते हैं;
किन्तु मेरे मनमें एक बड़ी चिन्ता है। उसे सुनकर आप मुझे शान्त
कीजिये ॥ ५५ ॥ अब घोर कलिकाल आया ही समझिये, इसलिये संसारमें
फिर अनेकों दुष्ट प्रकट हो जायँगे; उनके संसर्गसे जब अनेकों
सत्पुरुष भी उग्र प्रकृतिके हो जायँगे, तब उनके भारसे दबकर
यह गोरूपिणी पृथ्वी किसकी शरणमें जायगी ? कमलनयन ! मुझे तो
आपको छोडक़र इसकी रक्षा करनेवाला कोई दूसरा नहीं दिखायी देता ॥ ५६-५७ ॥ इसलिये
भक्तवत्सल ! आप साधुओंपर कृपा करके यहाँसे मत जाइये। भगवन् ! आपने निराकार और
चिन्मात्र होकर भी भक्तोंके लिये ही तो यह सगुण रूप धारण किया है ॥ ५८ ॥ फिर भला,
आपका वियोग होनेपर वे भक्तजन पृथ्वीपर कैसे रह सकेंगे ? निर्गुणोपासनामें तो बड़ा कष्ट है। इसलिये कुछ और विचार कीजिये ॥ ५९ ॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण(विशिष्टसंस्करण)पुस्तककोड1535
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