Monday, December 11, 2017

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य तीसरा अध्याय (पोस्ट.०६)



|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
तीसरा अध्याय (पोस्ट.०६)

भक्तिके कष्टकी निवृत्ति

आजन्ममात्रमपि येन शठेन किंचित्
चित्तं विधाय शुकशास्त्रकथा न पीता ।
चाण्डालवत् च खरवत् बत तेन नीतं
मिथ्या स्वजन्म जननी जनिदुःखभाजा ॥ ४२ ॥
जीवच्छवो निगदितः स तु पापकर्मा
येन श्रुतं शुककथावचनं न किंचित् ।
धिक् तं नरं पशुसमं भुवि भाररूपम्
एवं वदन्ति दिवि देवसमाजमुख्याः ॥ ४३ ॥
दुर्लभैव कथा लोके श्रीमद्‌भागवतोद्‌भवा ।
कोटिजन्मसमुत्थेन पुण्येनैव तु लभ्यते ॥ ४४ ॥
तेन योगनिधे धीमन् श्रोतव्या सा प्रयत्‍नतः ।
दिनानां नियमो नास्ति सर्वदा श्रवणं मतम् ॥ ४५ ॥
सत्येन ब्रह्मचर्येण सर्वदा श्रवणं मतम् ।
अशक्यत्वात् कलौ बोध्यो विशेषोऽत्र शुकाज्ञया ॥ ४६ ॥

जिस दुष्टने अपनी सारी आयुमें चित्तको एकाग्र करके श्रीमद्भागवतामृतका थोड़ा-सा भी रसास्वादन नहीं किया, उसने तो अपना सारा जन्म चाण्डाल और गधेके समान व्यर्थ ही गँवा दिया; वह तो अपनी माताको प्रसव-पीड़ा पहुँचानेके लिये ही उत्पन्न हुआ ॥ ४२ ॥ जिसने इस शुक- शास्त्रके थोड़े-से भी वचन नहीं सुने, वह पापात्मा तो जीता हुआ ही मुर्देके समान है। पृथ्वीके भारस्वरूप उस पशुतुल्य मनुष्यको धिक्कार है’—यों स्वर्गलोकमें देवताओंमें प्रधान इन्द्रादि कहा करते हैं ॥ ४३ ॥
संसारमें श्रीमद्भागवतकी कथाका मिलना अवश्य ही कठिन है; जब करोड़ों जन्मोंका पुण्य होता है, तभी इसकी प्राप्ति होती है ॥ ४४ ॥ नारदजी ! आप बड़े ही बुद्धिमान् और योगनिधि हैं। आप प्रयत्नपूर्वक कथाका श्रवण कीजिये। इसे सुननेके लिये दिनोंका कोई नियम नहीं है, इसे तो सर्वदा ही सुनना अच्छा है ॥ ४५ ॥ इसे सत्यभाषण और ब्रह्मचर्य-पालनपूर्वक सर्वदा ही सुनना श्रेष्ठ माना गया है। किन्तु कलियुगमें ऐसा होना कठिन है; इसलिये इसकी शुकदेवजीने जो विशेष विधि बतायी है, वह जान लेनी चाहिये ॥ ४६ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तक कोड 1535 से 


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