|| ॐ
नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पाँचवाँ अध्याय
(पोस्ट.११)
धुन्धुकारी को
प्रेतयोनि की प्राप्ति और उससे उद्धार
अदृढं च हतं
ज्ञानं प्रमादेन हतं श्रुतम् ।
संदिग्धो हि हतो
मंत्रो व्यग्रचित्तो हतो जपः ॥ ७३ ॥
अवैष्णवो हतो
देशो हतं श्राद्धं अपात्रकम् ।
हतं अश्रोत्रिये
दानं अनाचारं हतं कुलम् ॥ ७४ ॥
विश्वासो
गुरुवाक्येषु स्वस्मिन् दीनत्वभावना ।
मनोदोषजयश्चैव
कथायां निश्चला मतिः ॥ ७५ ॥
एवं आदि कृतं
चेत् स्यात् तदा वै श्रवणे फलम् ।
पुनः श्रवान्ते
सर्वेषां वैकुण्ठे वसतिर्ध्रुवम् ॥ ७६ ॥
गोकर्ण तव
गोविन्दो गोलोकं दास्यति स्वयम् ।
एवमुक्त्वा ययुः
सर्वे वैकुण्ठ हरिकीर्तनाः ॥ ७७ ॥
जो ज्ञान दृढ़
नहीं होता, वह व्यर्थ हो जाता है। इसी प्रकार ध्यान न
देनेसे श्रवणका, संदेहसे मन्त्रका और चित्तके इधर-उधर
भटकते रहनेसे जपका भी कोई फल नहीं होता ॥ ७३ ॥ वैष्णवहीन देश, अपात्रको कराया हुआ श्राद्धका भोजन, अश्रोत्रियको
दिया हुआ दान एवं आचारहीन कुल—इन सबका नाश हो जाता है ॥ ७४ ॥
गुरुवचनोंमें विश्वास, दीनताका भाव, मनके दोषोंपर विजय और कथामें चित्तकी एकाग्रता इत्यादि नियमोंका यदि पालन
किया जाय तो श्रवण का यथार्थ फल मिलता है । यदि ये श्रोता फिर से श्रीमद्भागवत की
कथा सुनें तो निश्चय ही सब को वैकुण्ठ की प्राप्ति होगी ॥ ७५-७६ ॥ और गोकर्णजी !
आपको तो भगवान् स्वयं आकर गोलोकधाम में ले जायँगे । यों कहकर वे सब पार्षद
हरिकीर्तन करते वैकुण्ठलोक को चले गये ॥७७॥
हरिः ॐ तत्सत्
शेष आगामी पोस्ट
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से
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