|| ॐ
नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.१०)
धुन्धुकारी को
प्रेतयोनि की प्राप्ति और उससे उद्धार
सर्वेषां
पश्यतां भेजे विमानं धुन्धुलीसुतः ।
विमाने
वैष्णवान् वीक्ष्य गोकर्णो वाक्यमब्रवीत् ॥ ६८ ॥
गोकर्ण उवाच -
अत्रैव बहवः
सन्ति श्रोतारो मम निर्मलाः ।
आनीतानि
विमानानि न तेषां युगपत्कुतः ॥ ६९ ॥
श्रवणं समभागेन
सर्वेषामिह दृश्यते ।
फलभेदः कुतो
जातः प्रब्रुवन्तु हरिप्रियाः ॥ ७० ॥
हरिदासा ऊचुः -
श्रवणस्य
विभेदेन फलभेदोऽत्र संस्थितः ।
श्रवणं तु कृतं
सर्वैः न तथा मननं कृतम् ।
फलभेदोस्ततो
जातो भजनादपि मानद ॥ ७१ ॥
सप्तरात्रं
उपोषैव प्रेतेन श्रवणं कृतम् ।
मननादि तथा तेन
स्थिरचित्ते कृतं भृशम् ॥ ७२ ॥
सब लोगोंके
सामने ही धुन्धुकारी उस विमानपर चढ़ गया। तब उस विमानपर आये हुए पार्षदों को देखकर
उनसे गोकर्ण ने यह बात कही ॥ ६८ ॥ गोकर्ण ने पूछा—भगवान्
के प्रिय पार्षदो ! यहाँ तो हमारे अनेकों शुद्धहृदय श्रोतागण हैं, उन सबके लिये आपलोग एक साथ बहुत-से विमान क्यों नहीं लाये ? हम देखते हैं कि यहाँ सभी ने समानरूप से कथा सुनी है, फिर फलमें इस प्रकारका भेद क्यों हुआ, यह
बताइये ॥ ६९-७० ॥
भगवान्के
सेवकोंने (गोकर्ण से) कहा—हे मानद ! इस फलभेदका कारण इनके श्रवणका भेद ही है।
यह ठीक है कि श्रवण तो सबने समानरूपसे ही किया है, किन्तु
इसके-जैसा मनन नहीं किया। इसीसे एक साथ भजन करनेपर भी उसके फलमें भेद रहा ॥ ७१ ॥
इस प्रेतने सात दिनोंतक निराहार रहकर श्रवण किया था, तथा
सुने हुए विषय का स्थिरचित्त से यह खूब मनन-निदिध्यासन भी करता रहता था ॥ ७२ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
शेष आगामी पोस्ट
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित
श्रीमद्भागवतमहापुराण(विशिष्टसंस्करण)पुस्तककोड1535 से
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