Monday, December 11, 2017

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य चौथा अध्याय (पोस्ट.०६)



|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
चौथा अध्याय (पोस्ट.०६)

गोकर्णोपाख्यान प्रारम्भ

संततेः सगरो दुःखं अवाप अङ्‌गः पुरा तथा ।
रे मुञ्चाद्य कुटुम्बाशां संन्यासे सर्वथा सुखम् ॥ ३६ ॥

ब्राह्मण उवाच –

विवेकेन भवेत्किं मे पुत्रं देहि बलादपि ।
नो चेत् त्यजाम्यहं प्राणान् त्वदग्रे शोकमूर्छितः ॥ ३७ ॥
पुत्रादिसुखहीनोऽयं संन्यासः शुष्क एव हि ।
गृहस्थः सरसो लोके पुत्रपौत्रसमन्वितः ॥ ३८ ॥
इति विप्राग्रहं दृष्ट्वा प्राब्रवीत् स तपोधनः ।
चित्रकेतुर्गतः कष्टं विधिलेखविमार्जनात् ॥ ३९ ॥
न यास्यसि सुखं पुत्रात् यथा दैवहतोद्यमः ।
अतो हठेन युक्तोऽसि ह्यर्थिनं किं वदाम्यहम् ॥ ४० ॥
तस्याग्रहं समालोक्य फलमेकं स दत्तवान् ।
इदं भक्षय पत्‍न्या त्वं ततः पुत्रो भविष्यति ॥ ४१ ॥
सत्यं शौचं दया दानं एकभक्तं तु भोजनम् ।
वर्षावधि स्त्रिया कार्यं तेन पुत्रोऽतिनिर्मलः ॥ ४२ ॥
एवमुक्त्वा ययौ योगी विप्रस्तु गृहमागतः ।
पत्‍न्याः पाणौ फलं दत्त्वा स्वयं यातस्तु कुत्रचित् ॥ ४३ ॥

पूर्वकालमें राजा सगर एवं अङ्गको सन्तानके कारण दु:ख भोगना पड़ा था। ब्राह्मण ! अब तुम कुटुम्बकी आशा छोड़ दो। संन्यासमें ही सब प्रकारका सुख है ॥ ३६ ॥
ब्राह्मणने कहामहात्माजी ! विवेकसे मेरा क्या होगा। मुझे तो बलपूर्वक पुत्र दीजिये; नहीं तो मैं आपके सामने ही शोकमूर्च्छित होकर अपने प्राण त्यागता हूँ ॥ ३७ ॥ जिसमें पुत्र-स्त्री आदिका सुख नहीं है, ऐसा संन्यास तो सर्वथा नीरस ही है। लोकमें सरस तो पुत्र-पौत्रादिसे भरा-पूरा गृहस्थाश्रम ही है ॥ ३८ ॥ ब्राह्मणका ऐसा आग्रह देखकर उन तपोधनने कहा, ‘विधाताके लेखको मिटानेका हठ करनेसे राजा चित्रकेतुको बड़ा कष्ट उठाना पड़ा था ॥ ३९ ॥ इसलिये दैव जिसके उद्योगको कुचल देता है, उस पुरुषके समान तुम्हें भी पुत्रसे सुख नहीं मिल सकेगा। तुमने तो बड़ा हठ पकड़ रखा है और अर्थी के रूपमें तुम मेरे सामने उपस्थित हो; ऐसी दशामें मैं तुमसे क्या कहूँ॥ ४० ॥ जब महात्माजीने देखा कि यह किसी प्रकार अपना आग्रह नहीं छोड़ता, तब उन्होंने उसे एक फल देकर कहा—‘इसे तुम अपनी पत्नीको खिला देना, इससे उसके एक पुत्र होगा ॥ ४१ ॥ तुम्हारी स्त्रीको एक सालतक सत्य, शौच, दया, दान और एक समय एक ही अन्न खानेका नियम रखना चाहिये। यदि वह ऐसा करेगी तो बालक बहुत शुद्ध स्वभाववाला होगा॥ ४२ ॥ यों कहकर वे योगिराज चले गये और ब्राह्मण अपने घर लौट आया। वहाँ आकर उसने वह फल अपनी स्त्रीके हाथमें दे दिया और स्वयं कहीं चला गया ॥ ४३ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तक कोड 1535 से


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