||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
दूसरा
अध्याय (पोस्ट.०९)
भक्तिका
दु:ख दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग
सत्कर्म
तव निर्दिष्टं व्योमवाचा तु यत्पुरा ।
तदुच्यते
श्रृणुष्वाद्य स्थिरचित्तः प्रसन्नधीः ॥ ५८ ॥
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा
योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च
ते तु कर्मविसूचकाः ॥ ५९ ॥
सत्कर्मसूचको
नूनं ज्ञानयज्ञः स्मृतो बुधैः ।
श्रीमद्भागवतालापः
स तु गीतः शुकादिभिः ॥ ६० ॥
भक्तिज्ञानविरागाणां
तद्घोषेण बलं महत् ।
व्रजिष्यति
द्वयोः कष्टं सुखं भक्तेर्भविष्यति ॥ ६१ ॥
प्रलयं
हि गमिष्यन्ति श्रीमद्भागवतध्वनेः ।
कलेर्दोषा
इमे सर्व सिंहशब्दाद् वृका इव ॥ ६२ ॥
ज्ञानवैराग्यसंयुक्ता
भक्तिः प्रेमरसावहा ।
प्रतिगेहं
प्रतिजनं ततः क्रीडां करिष्यति ॥ ६३ ॥
(सनकादिने
नारदजी से) कहा आपको आकाशवाणीने जिस सत्कर्मका संकेत किया है, उसे हम बतलाते हैं; आप प्रसन्न और समाहितचित्त होकर
सुनिये ॥ ५८ ॥ नारदजी ! द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ और स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ—ये सब तो
स्वर्गादिकी प्राप्ति करानेवाले कर्मकी ही ओर संकेत करते हैं ॥ ५९ ॥ पण्डितोंने
ज्ञानयज्ञको ही सत्कर्म (मुक्तिदायक कर्म) का सूचक माना है। वह श्रीमद्भागवतका
पारायण है, जिसका गान शुकादि महानुभावोंने किया है ॥ ६० ॥
उसके शब्द सुननेसे ही भक्ति, ज्ञान और वैराग्यको बड़ा बल
मिलेगा। इससे ज्ञान-वैराग्यका कष्ट मिट जायगा और भक्तिको आनन्द मिलेगा ॥ ६१ ॥
सिंहकी गर्जना सुनकर जैसे भेडिय़े भाग जाते हैं, उसी प्रकार
श्रीमद्भागवतकी ध्वनिसे कलियुगके सारे दोष नष्ट हो जायँगे ॥ ६२ ॥ तब प्रेमरस
प्रवाहित करनेवाली भक्ति, ज्ञान और वैराग्यको साथ लेकर
प्रत्येक घर और व्यक्तिके हृदयमें क्रीडा करेगी ॥ ६३ ॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से

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