||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
दूसरा
अध्याय (पोस्ट.०८)
भक्तिका
दु:ख दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग
येषां
भ्रूभङ्गमात्रेण द्वारपालौ हरेः पुरा ।
भ्रूमौ
निपतितौ सद्यो यत्कृपातः पुरं गतौ ॥ ४९ ॥
अहो
भाग्यस्य योगेन दर्शनं भवतामिह ।
अनुग्रहस्तु
कर्तव्यो मयि दीने दयापरैः ॥ ५० ॥
अशरीरगिरोक्तं
यत् तत्किं साधनमुच्यताम् ।
अनुष्ठेयं
कथं तावत् प्रब्रुवन्तु सविस्तरम् ॥ ५१ ॥
भक्तिज्ञानविरागाणां
सुखं उत्पद्यते कथम् ।
स्थापनं
सर्ववर्णेषु प्रेमपूर्वं प्रयत्नतः ॥ ५२ ॥
कुमारा
ऊचुः –
मा
चिन्तां कुरु देवर्षे हर्षं चित्ते समावह ।
उपायः
सुखसाध्योऽत्र वर्तते पूर्व एव हि ॥ ५३ ॥
अहो
नारद धन्योऽसि विरक्तानां शिरोमणिः ।
सदा
श्रीकृष्णदासानां अग्रणीः योगभास्करः ॥ ५४ ॥
त्वयि
चित्रं न मन्तव्यं भक्त्यर्थं अनुवर्तिनि ।
घटते
कृष्णदासस्य भक्तेः संस्थापना सदा ॥ ५५ ॥
ऋषिर्बहवो
लोके पन्थानः प्रकटीकृताः ।
श्रमसाध्याश्च
ते सर्वे प्रायः स्वर्गफलप्रदाः ॥ ५६ ॥
वैकुण्ठसाधकं
पन्थाः स तु गोप्यो हि वर्तते ।
तस्योपदेष्टा
पुरुषः प्रायो भाग्येन लभ्यते ॥ ५७ ॥
(नारदजी
सनकादि मुनीश्वर से कहते हैं) पूर्वकालमें आपके भ्रूभङ्गमात्रसे भगवान् विष्णुके
द्वारपाल जय और विजय तुरंत पृथ्वीपर गिर गये थे और फिर आपकी ही कृपासे वे पुन:
वैकुण्ठलोक पहुँच गये ॥ ४९ ॥ धन्य है, इस समय आपका दर्शन
बड़े सौभाग्यसे ही हुआ है। मैं बहुत दीन हूँ और आपलोग स्वभावसे ही दयालु हैं;
इसलिये मुझपर आपको अवश्य कृपा करनी चाहिये ॥ ५० ॥ बताइये— आकाशवाणीने जिसके विषयमें कहा है, वह कौन-सा साधन है,
और मुझे किस प्रकार उसका अनुष्ठान करना चाहिये। आप इसका विस्तारसे
वर्णन कीजिये ॥ ५१ ॥ भक्ति, ज्ञान और वैराग्यको किस प्रकार
सुख मिल सकता है ? और किस तरह इनकी प्रेमपूर्वक सब वर्णोंमें
प्रतिष्ठा की जा सकती है?’ ॥ ५२ ॥
सनकादिने
कहा—देवर्षे ! आप चिन्ता न करें, मनमें प्रसन्न हों;
उनके उद्धारका एक सरल उपाय पहलेसे ही विद्यमान है ॥ ५३ ॥ नारदजी !
आप धन्य हैं। आप विरक्तोंके शिरोमणि हैं। श्रीकृष्णदासोंके शाश्वत पथ-प्रदर्शक एवं
भक्तियोगके भास्कर हैं ॥ ५४ ॥ आप भक्तिके लिये जो उद्योग कर रहे हैं, यह आपके लिये कोई आश्चर्यकी बात नहीं समझनी चाहिये। भगवान्के भक्तके लिये
तो भक्तिकी सम्यक् स्थापना करना सदा उचित ही है ॥ ५५ ॥ ऋषियोंने संसारमें अनेकों
मार्ग प्रकट किये हैं; किंतु वे सभी कष्टसाध्य हैं और
परिणाममें प्राय: स्वर्गकी ही प्राप्ति करानेवाले हैं ॥ ५६ ॥ अभीतक भगवान्की
प्राप्ति करानेवाला मार्ग तो गुप्त ही रहा है। उसका उपदेश करनेवाला पुरुष प्राय:
भाग्यसे ही मिलता है ॥ ५७ ॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से

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