Friday, December 8, 2017

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य दूसरा अध्याय (पोस्ट.०८)



|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
दूसरा अध्याय (पोस्ट.०८)

भक्तिका दु:ख दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग

येषां भ्रूभङ्‍गमात्रेण द्वारपालौ हरेः पुरा ।
भ्रूमौ निपतितौ सद्यो यत्कृपातः पुरं गतौ ॥ ४९ ॥
अहो भाग्यस्य योगेन दर्शनं भवतामिह ।
अनुग्रहस्तु कर्तव्यो मयि दीने दयापरैः ॥ ५० ॥
अशरीरगिरोक्तं यत् तत्किं साधनमुच्यताम् ।
अनुष्ठेयं कथं तावत् प्रब्रुवन्तु सविस्तरम् ॥ ५१ ॥
भक्तिज्ञानविरागाणां सुखं उत्पद्यते कथम् ।
स्थापनं सर्ववर्णेषु प्रेमपूर्वं प्रयत्‍नतः ॥ ५२ ॥

कुमारा ऊचुः –

मा चिन्तां कुरु देवर्षे हर्षं चित्ते समावह ।
उपायः सुखसाध्योऽत्र वर्तते पूर्व एव हि ॥ ५३ ॥
अहो नारद धन्योऽसि विरक्तानां शिरोमणिः ।
सदा श्रीकृष्णदासानां अग्रणीः योगभास्करः ॥ ५४ ॥
त्वयि चित्रं न मन्तव्यं भक्त्यर्थं अनुवर्तिनि ।
घटते कृष्णदासस्य भक्तेः संस्थापना सदा ॥ ५५ ॥
ऋषिर्बहवो लोके पन्थानः प्रकटीकृताः ।
श्रमसाध्याश्च ते सर्वे प्रायः स्वर्गफलप्रदाः ॥ ५६ ॥
वैकुण्ठसाधकं पन्थाः स तु गोप्यो हि वर्तते ।
तस्योपदेष्टा पुरुषः प्रायो भाग्येन लभ्यते ॥ ५७ ॥

(नारदजी सनकादि मुनीश्वर से कहते हैं) पूर्वकालमें आपके भ्रूभङ्गमात्रसे भगवान्‌ विष्णुके द्वारपाल जय और विजय तुरंत पृथ्वीपर गिर गये थे और फिर आपकी ही कृपासे वे पुन: वैकुण्ठलोक पहुँच गये ॥ ४९ ॥ धन्य है, इस समय आपका दर्शन बड़े सौभाग्यसे ही हुआ है। मैं बहुत दीन हूँ और आपलोग स्वभावसे ही दयालु हैं; इसलिये मुझपर आपको अवश्य कृपा करनी चाहिये ॥ ५० ॥ बताइयेआकाशवाणीने जिसके विषयमें कहा है, वह कौन-सा साधन है, और मुझे किस प्रकार उसका अनुष्ठान करना चाहिये। आप इसका विस्तारसे वर्णन कीजिये ॥ ५१ ॥ भक्ति, ज्ञान और वैराग्यको किस प्रकार सुख मिल सकता है ? और किस तरह इनकी प्रेमपूर्वक सब वर्णोंमें प्रतिष्ठा की जा सकती है?’ ॥ ५२ ॥
सनकादिने कहादेवर्षे ! आप चिन्ता न करें, मनमें प्रसन्न हों; उनके उद्धारका एक सरल उपाय पहलेसे ही विद्यमान है ॥ ५३ ॥ नारदजी ! आप धन्य हैं। आप विरक्तोंके शिरोमणि हैं। श्रीकृष्णदासोंके शाश्वत पथ-प्रदर्शक एवं भक्तियोगके भास्कर हैं ॥ ५४ ॥ आप भक्तिके लिये जो उद्योग कर रहे हैं, यह आपके लिये कोई आश्चर्यकी बात नहीं समझनी चाहिये। भगवान्‌के भक्तके लिये तो भक्तिकी सम्यक् स्थापना करना सदा उचित ही है ॥ ५५ ॥ ऋषियोंने संसारमें अनेकों मार्ग प्रकट किये हैं; किंतु वे सभी कष्टसाध्य हैं और परिणाममें प्राय: स्वर्गकी ही प्राप्ति करानेवाले हैं ॥ ५६ ॥ अभीतक भगवान्‌की प्राप्ति करानेवाला मार्ग तो गुप्त ही रहा है। उसका उपदेश करनेवाला पुरुष प्राय: भाग्यसे ही मिलता है ॥ ५७ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से 


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