||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
दूसरा
अध्याय (पोस्ट.१०)
भक्तिका
दु:ख दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग
नारद
उवाच –
वेदवेदान्तघोषैश्च
गीतापाठैः प्रबोधितम् ।
भक्तिज्ञानविरागाणां
नोदतिष्ठत् त्रिकं यदा ॥ ६४ ॥
श्रीमद्भागवत
आलापात् तत्कथं बोधमेष्यति ।
तत्कथासु
तु वेदार्थः श्लोके श्लोके पदे पदे ॥ ६५ ॥
छिन्दन्तु
संशयं ह्येनं भवन्तोऽमोघदर्शनाः ।
विलम्बो
नात्र कर्तव्यः शरणागतवत्सलाः ॥ ६६ ॥
कुमारा
ऊचुः –
वेदोपनिषदां
सारात् जाता भागवती कथा ।
अत्युत्तमा
ततो भाति पृथग्भूता फलाकृतिः ॥ ६७ ॥
आमूलाग्रं
रसस्तिष्ठन् नास्ते न स्वाद्यते यथा ।
सभूयः
संपृथग्भूतः फले विश्वमनोहरः ॥ ६८ ॥
यथा
दुग्धे स्थितं सर्पिः न स्वादायोपकल्पते ।
पृथग्भूतं
हि तद्गव्यं देवानां रसवर्धनम् ॥ ६९ ॥
इक्षूणामपि
मध्यान्तं शर्करा व्याप्य तिष्ठति ।
पृथग्भूता
च सा मिष्टा तथा भागवती कथा ॥ ७० ॥
नारदजीने
कहा—मैंने वेद-वेदान्तकी ध्वनि और गीतापाठ करके उन्हें बहुत जगाया, किंतु फिर भी भक्ति, ज्ञान और वैराग्य—ये तीनों नहीं जगे ॥ ६४ ॥ ऐसी स्थितिमें श्रीमद्भागवत सुनानेसे वे कैसे
जगेंगे ? क्योंकि उस कथाके प्रत्येक श्लोक और प्रत्येक पदमें
भी वेदोंका ही तो सारांश है ॥ ६५ ॥ आपलोग शरणागतवत्सल हैं तथा आपका दर्शन कभी
व्यर्थ नहीं होता; इसलिये मेरा यह संदेह दूर कर दीजिये,
इस कार्यमें विलम्ब न कीजिये ॥ ६६ ॥
सनकादिने
कहा—श्रीमद्भागवतकी कथा वेद और उपनिषदोंके सारसे बनी है। इसलिये उनसे अलग उनकी
फलरूपा होनेके कारण वह बड़ी उत्तम जान पड़ती है ॥ ६७ ॥ जिस प्रकार रस वृक्षकी
जड़से लेकर शाखाग्रपर्यन्त रहता है, किंतु इस स्थितिमें उसका
आस्वादन नहीं किया जा सकता; वही जब अलग होकर फलके रूपमें आ
जाता है, तब संसारमें सभीको प्रिय लगने लगता है ॥ ६८ ॥
दूधमें घी रहता ही है, किन्तु उस समय उसका अलग स्वाद नहीं
मिलता; वही जब उससे अलग हो जाता है, तब
देवताओंके लिये भी स्वादवर्धक हो जाता है ॥ ६९ ॥ खाँड ईखके ओर-छोर और बीचमें भी
व्याप्त रहती है, तथापि अलग होनेपर उसकी कुछ और ही मिठास
होती है। ऐसी ही यह भागवतकी कथा है ॥ ७० ॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से

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