||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
दूसरा
अध्याय (पोस्ट.०३)
भक्तिका
दु:ख दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग
अन्यधर्मान्
तिरस्कृत्य पुरस्कृत्य महोत्सवान् ।
तदा
नाहं हरेर्दासो लोके त्वां न प्रवर्तये ॥ १४ ॥
त्वद्
अन्विताश्च ये जीवा भविष्यन्ति कलौ इह ।
पापिनोऽपि
गमिष्यन्ति निर्भयं कृष्णमन्दिरम् ॥ १५ ॥
येषां
चित्ते वसेद्भक्तिः सर्वदा प्रेमरूपिणी ।
नते
पश्यन्ति कीनाशं स्वप्नेऽप्यमलमूर्तयः ॥ १६ ॥
न
प्रेतो न पिशाचो वा राक्षसो वासुरोऽपि वा ।
भक्तियुक्तमनस्कानां
स्पर्शने न प्रभुर्भवेत् ॥ १७ ॥
न
तपोभिर्न वेदैश्च न ज्ञानेनापि कर्मणा ।
हरिर्हि
साध्यते भक्त्या प्रमाणं तत्र गोपिकाः ॥ १८ ॥
नृणां
जन्मसहस्रेण भक्तौ प्रीतिर्हि जायते ।
कलौ
भक्तिः कलौ भक्तिः भक्त्या कृष्णः पुरः स्थितः ॥ १९ ॥
(नारदजीने
भक्ति से कहा)--देखो,
अन्य सब धर्मों को दबाकर और भक्तिविषयक महोत्सवों को आगे रखकर यदि
मैंने लोकमें तुम्हारा प्रचार न किया तो मैं श्रीहरिका दास नहीं ॥ १४ ॥ इस
कलियुगमें जो जीव तुमसे युक्त होंगे, वे पापी होनेपर भी
बेखटके भगवान् श्रीकृष्ण के अभय धाम को प्राप्त होंगे ॥ १५ ॥ जिनके हृदय में
निरन्तर प्रेमरूपिणी भक्ति निवास करती है, वे शुद्धान्त:करण
पुरुष स्वप्नमें भी यमराजको नहीं देखते ॥ १६ ॥ जिनके हृदयमें भक्ति महारानीका
निवास है, उन्हें प्रेत, पिशाच,
राक्षस या दैत्य आदि स्पर्श करनेमें भी समर्थ नहीं हो सकते ॥ १७ ॥
भगवान् तप, वेदाध्ययन, ज्ञान और कर्म
आदि किसी भी साधनसे वशमें नहीं किये जा सकते; वे केवल
भक्तिसे ही वशीभूत होते हैं। इसमें श्रीगोपीजन प्रमाण हैं ॥ १८ ॥ मनुष्योंका
सहस्रों जन्मके पुण्य-प्रतापसे भक्तिमें अनुराग होता है। कलियुगमें केवल भक्ति,
केवल भक्ति ही सार है। भक्तिसे तो साक्षात् श्रीकृष्णचन्द्र सामने
उपस्थित हो जाते हैं ॥ १९ ॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से
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