||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
दूसरा
अध्याय (पोस्ट.०२)
भक्तिका
दु:ख दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग
पोषणं
स्वेन रूपेण वैकुण्ठे त्वं करोषि च च ।
भूमौ
भक्तविपोषाय छायारूपं त्वया कृतम् ॥ ८ ॥
मुक्तिं
ज्ञानं विरक्तिं च सह कृत्वा गता भुवि ।
कृतादि
द्वापरस्यान्तं महानन्देन संस्थिता ॥ ९ ॥
कलौ
मुक्तिः क्षयं प्राप्ता पाखण्डामयपीडिता ।
त्वद्
आज्ञया गता शीघ्रं वैकुण्ठं पुनरेव सा ॥ १० ॥
स्मृता
त्वयापि चात्रैव मुक्तिरायाति याति च ।
पुत्रीकृत्य
त्वयेमौ च पार्श्वे स्वस्यैव रक्षितौ ॥ ११ ॥
उपेक्षातः
कलौ मन्दौ वृद्धौ जातौ सुतौ तव ।
तथापि
चिन्तां मुञ्च त्वं उपायं चिन्तयाम्यहम् ॥ १२ ॥
कलिना
सदृशः कोऽपि युगो नास्ति वरानने ।
तस्मिन्
त्वां स्थापयिष्यामि गेहे गेहे जने जने ॥ १३ ॥
(नारदजीने
भक्ति से कहा)--तुम अपने साक्षात् स्वरूपसे वैकुण्ठधाममें ही भक्तोंका पोषण करती
हो,
भूलोकमें तो तुमने उनकी पुष्टिके लिये केवल छायारूप धारण कर रखा है
॥ ८ ॥ तब तुम मुक्ति, ज्ञान और वैराग्यको साथ लिये
पृथ्वीतलपर आयीं और सत्ययुगसे द्वापरपर्यन्त बड़े आनन्दसे रहीं ॥ ९ ॥ कलियुगमें
तुम्हारी दासी मुक्ति पाखण्डरूप रोगसे पीडि़त होकर क्षीण होने लगी थी, इसलिये वह तो तुरंत ही तुम्हारी आज्ञासे वैकुण्ठलोकको चली गयी ॥ १० ॥ इस
लोक में भी तुम्हारे स्मरण करनेसे ही वह आती है और फिर चली जाती है; किंतु इन ज्ञान-वैराग्यको तुमने पुत्र मानकर अपने पास ही रख छोड़ा है ॥ ११
॥ फिर भी कलियुगमें इनकी उपेक्षा होनेके कारण तुम्हारे ये पुत्र उत्साहहीन और
वृद्ध हो गये हैं, फिर भी तुम चिन्ता न करो, मैं इनके नवजीवनका उपाय सोचता हूँ ॥ १२ ॥ सुमुखि ! कलिके समान कोई भी युग
नहीं है, इस युगमें मैं तुम्हें घर-घरमें प्रत्येक पुरुषके
हृदयमें स्थापित कर दूँगा ॥ १३ ॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से
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