Friday, December 8, 2017

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य दूसरा अध्याय (पोस्ट.०४)



|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
दूसरा अध्याय (पोस्ट.०४)

भक्तिका दु:ख दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग

भक्तिद्रोहकरा ये च ते सीदन्ति जगत्त्रये ।
दुर्वासा दुःखमापन्नः पुरा भक्तविनिन्दकः ॥ २० ॥
अलं व्रतैः अलं तीर्थैः अलं योगैरलं मखैः ।
अलं ज्ञानकथालापैः भक्तिरेकैव मुक्तिदा ॥ २१ ॥

सूत उवाच –

इति नारदनिर्णीतं स्वमायात्म्यं निशम्य सा ।
सर्वाङ्‍६गपुष्टिसंयुक्ता नारदं वाक्यमव्रवीत् ॥ २२ ॥

भक्तिरुवाच –

अहो नारद धन्योऽसि प्रीतिस्ते मयि निश्चला ।
न कदाचिद् विमुञ्चामि चित्ते स्थास्यामि सर्वदा ॥ २३ ॥
कृपालुना त्वया साधो मद्‌बाधा ध्वंसिता क्षणात् ।
पुत्रयोश्चेतना नास्ति ततो बोधय बोधय ॥ २४ ॥

जो लोग भक्तिसे द्रोह करते हैं, वे तीनों लोकोंमें दु:ख-ही-दु:ख पाते हैं। पूर्वकालमें भक्तका तिरस्कार करनेवाले दुर्वासा ऋषिको बड़ा कष्ट उठाना पड़ा था ॥ २० ॥ बस, बसव्रत, तीर्थ, योग, यज्ञ और ज्ञान चर्चा आदि बहुत-से साधनोंकी कोई आवश्यकता नहीं है; एकमात्र भक्ति ही मुक्ति देनेवाली है ॥ २१ ॥
सूतजी कहते हैंइस प्रकार नारदजीके निर्णय किये हुए अपने माहात्म्यको सुनकर भक्तिके सारे अङ्ग पुष्ट हो गये और वे उनसे कहने लगीं ॥ २२ ॥नारदजी ! आप धन्य हैं। आपकी मुझमें निश्चल प्रीति है। मैं सदा आपके हृदयमें रहूँगी, कभी आपको छोडक़र नहीं जाऊँगी ॥ २३ ॥ साधो ! आप बड़े कृपालु हैं। आपने क्षणभरमें ही मेरा सारा दु:ख दूर कर दिया। किन्तु अभी मेरे पुत्रोंमें चेतना नहीं आयी है; आप इन्हें शीघ्र ही सचेत कर दीजिये, जगा दीजिये ॥ २४ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से 


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