||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
दूसरा
अध्याय (पोस्ट.०४)
भक्तिका
दु:ख दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग
भक्तिद्रोहकरा
ये च ते सीदन्ति जगत्त्रये ।
दुर्वासा
दुःखमापन्नः पुरा भक्तविनिन्दकः ॥ २० ॥
अलं
व्रतैः अलं तीर्थैः अलं योगैरलं मखैः ।
अलं
ज्ञानकथालापैः भक्तिरेकैव मुक्तिदा ॥ २१ ॥
सूत
उवाच –
इति
नारदनिर्णीतं स्वमायात्म्यं निशम्य सा ।
सर्वाङ्६गपुष्टिसंयुक्ता
नारदं वाक्यमव्रवीत् ॥ २२ ॥
भक्तिरुवाच
–
अहो
नारद धन्योऽसि प्रीतिस्ते मयि निश्चला ।
न
कदाचिद् विमुञ्चामि चित्ते स्थास्यामि सर्वदा ॥ २३ ॥
कृपालुना
त्वया साधो मद्बाधा ध्वंसिता क्षणात् ।
पुत्रयोश्चेतना
नास्ति ततो बोधय बोधय ॥ २४ ॥
जो
लोग भक्तिसे द्रोह करते हैं, वे तीनों लोकोंमें दु:ख-ही-दु:ख
पाते हैं। पूर्वकालमें भक्तका तिरस्कार करनेवाले दुर्वासा ऋषिको बड़ा कष्ट उठाना
पड़ा था ॥ २० ॥ बस, बस—व्रत, तीर्थ, योग, यज्ञ और ज्ञान
चर्चा आदि बहुत-से साधनोंकी कोई आवश्यकता नहीं है; एकमात्र
भक्ति ही मुक्ति देनेवाली है ॥ २१ ॥
सूतजी
कहते हैं—इस प्रकार नारदजीके निर्णय किये हुए अपने माहात्म्यको सुनकर भक्तिके सारे
अङ्ग पुष्ट हो गये और वे उनसे कहने लगीं ॥ २२ ॥—नारदजी ! आप
धन्य हैं। आपकी मुझमें निश्चल प्रीति है। मैं सदा आपके हृदयमें रहूँगी, कभी आपको छोडक़र नहीं जाऊँगी ॥ २३ ॥ साधो ! आप बड़े कृपालु हैं। आपने
क्षणभरमें ही मेरा सारा दु:ख दूर कर दिया। किन्तु अभी मेरे पुत्रोंमें चेतना नहीं
आयी है; आप इन्हें शीघ्र ही सचेत कर दीजिये, जगा दीजिये ॥ २४ ॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से

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