||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
चौथा
अध्याय (पोस्ट.०२)
गोकर्णोपाख्यान
प्रारम्भ
तदा
जयजयारावो रसपुष्टिरलौकिकी ।
चूर्णप्रसून
वृष्टिश्च मुहुः शंखरवोऽप्यभूत् ॥ ६ ॥
तत्
सभासंस्थितानां च देहगेहात्मविस्मृतिः ।
दृष्ट्वा
च तन्मयावस्थां नारदो वाक्यमब्रवीत् ॥ ७ ॥
अलौकिकोऽयं
महिमा मुनीश्वराः
सप्ताहजन्योऽद्य विलोकितो मया ।
मूढाः
शठा ये पशुपक्षिणोऽत्र
सर्वेऽपि निष्पापतमा भवन्ति ॥ ८ ॥
अतो
नृलोके ननु नास्ति किंचित्
चित्तस्य शोधाय कलौ पवित्रम् ।
अघौघविध्वंसकरं
तथैव
कथासमानं भुवि नास्ति चान्यत् ॥ ९ ॥
के
के विशुद्ध्यन्ति वदन्तु मह्यं
सप्ताहयज्ञेन कथामयेन ।
कृपालुभिर्लोकहितं
विचार्य
प्रकाशितः कोऽपि नवीनमार्गः ॥ १० ॥
प्रभुके
प्रकट होते ही चारों ओर ‘जय हो ! जय हो !!’ की ध्वनि होने लगी। उस समय
भक्तिरसका अद्भुत प्रवाह चला, बार-बार अबीर-गुलाल और
पुष्पोंकी वर्षा तथा शङ्ख- ध्वनि होने लगी ॥ ६ ॥ उस सभामें जो लोग बैठे थे,
उन्हें अपने देह, गेह और आत्माकी भी कोई सुधि
न रही। उनकी ऐसी तन्मयता देखकर नारदजी कहने लगे— ॥ ७ ॥ मुनीश्वरगण
! आज सप्ताहश्रवणकी मैंने यह बड़ी ही अलौकिक महिमा देखी। यहाँ तो जो बड़े मूर्ख,
दुष्ट और पशु-पक्षी भी हैं, वे सभी अत्यन्त
निष्पाप हो गये हैं ॥ ८ ॥ अत: इसमें संदेह नहीं कि कलिकाल में चित्त की शुद्धि के
लिये इस भागवतकथा के समान मर्त्यलोकमें पापपुञ्जका नाश करनेवाला कोई दूसरा पवित्र
साधन नहीं है ॥ ९ ॥
मुनिवर
! आपलोग बड़े कृपालु हैं,
आपने संसारके कल्याणका विचार करके यह बिलकुल निराला ही मार्ग निकाला
है। आप कृपया यह तो बताइये कि इस कथारूप सप्ताहयज्ञके द्वारा संसारमें कौन-कौन लोग
पवित्र हो जाते हैं ॥ १० ॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से

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