||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
चौथा
अध्याय (पोस्ट.०१)
गोकर्णोपाख्यान
प्रारम्भ
सूत
उवाच -
अथ
वैष्णवचित्तेषु दृष्ट्वा भक्तिं अलौकिकीम् ।
निजलोकं
परित्यज्य भगवान् भक्तवत्सलः ॥ १ ॥
वनमाली
घनश्यामः पीतवासा मनोहरः ।
काञ्चीकलापरुचिरो
लसन् मुकुटकुण्डलः ॥ २ ॥
त्रिभङ्गललितश्चारु
कौस्तुभेन विराजितः ।
कोटिमन्मथलावण्यो
हरिचन्दनचर्चितः ॥ ३ ॥
परमानन्द
चिन्मूर्तिः मधुरो मुरलीधरः ।
आविवेश
स्वभक्तानां हृदयानि अमलानि च ॥ ४ ॥
वैकुण्ठवासिनो
ये च वैष्णवा उद्धवादयः ।
तत्कथाश्रवणार्थं
ते गूढरूपेण संस्थिताः ॥ ५ ॥
सूतजी
कहते हैं—मुनिवर ! उस समय अपने भक्तोंके चित्तमें अलौकिक भक्तिका प्रादुर्भाव हुआ
देख भक्तवत्सल श्रीभगवान् अपना धाम छोडक़र वहाँ पधारे ॥ १ ॥ उनके गलेमें वनमाला
शोभा पा रही थी, श्रीअङ्ग सजल जलधरके समान श्यामवर्ण था,
उसपर मनोहर पीताम्बर सुशोभित था, कटिप्रदेश
करधनीकी लडिय़ोंसे सुसज्जित था, सिरपर मुकुटकी लटक और
कानोंमें कुण्डलोंकी झलक देखते ही बनती थी ॥ २ ॥ वे त्रिभङ्गललित भावसे खड़े हुए
चित्तको चुराये लेते थे। वक्ष:स्थलपर कौस्तुभमणि दमक रही थी, सारा श्रीअङ्ग हरिचन्दनसे चर्चित था। उस रूपकी शोभा क्या कहें, उसने तो मानो करोड़ों कामदेवोंकी रूपमाधुरी छीन ली थी ॥ ३ ॥ वे
परमानन्दचिन्मूर्ति मधुरातिमधुर मुरलीधर ऐसी अनुपम छबिसे अपने भक्तोंके निर्मल
चित्तोंमें आविर्भूत हुए ॥ ४ ॥ भगवान्के नित्य लोकनिवासी लीलापरिकर उद्धवादि वहाँ
गुप्तरूपसे उस कथाको सुननेके लिये आये हुए थे ॥ ५ ॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से

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