Tuesday, December 12, 2017

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य चौथा अध्याय (पोस्ट.१०)



|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
चौथा अध्याय (पोस्ट.१०)

गोकर्णोपाख्यान प्रारम्भ

तद्वाक्यं तु समाकर्ण्य गन्तुकामः पिताब्रवीत् ।
किंकर्तव्यं वने तात तत्त्वं वद सविस्तरम् ॥ ७७ ॥
अन्धकूपे स्नेहपाशे बद्धः पंगुरहं शठः ।
कर्मणा पतितो नूनं मामुद्धर दयानिधे ॥ ७८ ॥
देहेऽस्थिमांसरुधिरेऽभिमतिं त्यज त्वं
जायासुतादिषु सदा ममतां विमुञ्च ।
पश्यानिशं जगदिदं क्षणभंगनिष्ठं
वैराग्यरागरसिको भव भक्तिनिष्ठः ॥ ७९ ॥
धर्म भजस्व सततं त्यज लोकधर्मान्
सेवस्व साधुपुरुषान् ‍जहि कामतृष्णाम् ।
अन्यस्य दोषगुणचिन्तनमाशु मुक्त्वा
सेवाकथारसमहो नितरां पिब त्वम् ॥ ८० ॥
एवं सुतोक्तिवशतोऽपि गृहं विहाय
यातो वनं स्थिरमतिर्गतषष्टिवर्षः ।
युक्तो हरेरनुदिनं परिचर्ययासौ
श्रीकृष्णमाप नियतं दशमस्य पाठात् ॥ ८१ ॥

गोकर्णके वचन सुनकर आत्मदेव वनमें जानेके लिये तैयार हो गया और उनसे कहने लगा, ‘बेटा ! वनमें रहकर मुझे क्या करना चाहिये, यह मुझसे विस्तारपूर्वक कहो ॥ ७७ ॥ मैं बड़ा मूर्ख हूँ, अबतक कर्मवश स्नेह-पाशमें बँधा हुआ अपङ्गकी भाँति इस घररूप अँधेरे कुएँमें ही पड़ा रहा हूँ। तुम बड़े दयालु हो, इससे मेरा उद्धार करो॥ ७८ ॥ गोकर्णने कहापिताजी ! यह शरीर हड्डी, मांस और रुधिरका पिण्ड है; इसे आप मैंमानना छोड़ दें और स्त्री-पुत्रादिको अपनाकभी न मानें। इस संसारको रात-दिन क्षणभङ्गुर देखें, इसकी किसी भी वस्तुको स्थायी समझकर उसमें राग न करें। बस, एकमात्र वैराग्य-रसके रसिक होकर भगवान्‌की भक्तिमें लगे रहें ॥ ७९ ॥ भगवद्भजन ही सबसे बड़ा धर्म है, निरन्तर उसीका आश्रय लिये रहें। अन्य सब प्रकारके लौकिक धर्मोंसे मुख मोड़ लें। सदा साधुजनोंकी सेवा करें। भोगोंकी लालसाको पास न फटकने दें तथा जल्दी-से-जल्दी दूसरोंके गुण-दोषोंका विचार करना छोडक़र एकमात्र भगवत्सेवा और भगवान्‌की कथाओंके रसका ही पान करें ॥ ८० ॥ इस प्रकार पुत्रकी वाणीसे प्रभावित होकर आत्मदेवने घर छोड़ दिया और वनकी यात्रा की। यद्यपि उसकी आयु उस समय साठ वर्षकी हो चुकी थी, फिर भी बुद्धिमें पूरी दृढ़ता थी। वहाँ रात- दिन भगवान्‌की सेवा-पूजा करनेसे और नियमपूर्वक भागवतके दशमस्कन्धका पाठ करनेसे उसने भगवान्‌ श्रीकृष्णचन्द्रको प्राप्त कर लिया ॥ ८१ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

इति श्रीपद्मपुराणे उत्तरखण्डे श्रीमद्‌भागवतमाहात्म्ये
विप्रमोक्षो नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से


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