||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
चौथा
अध्याय (पोस्ट.०५)
गोकर्णोपाख्यान
प्रारम्भ
एकदा
स तु द्विजो दुःखाद् गृहं त्यक्त्वा वनं गतः ।
मध्याह्ने
तृषितो जातः तडागं समुपेयिवान् ॥ २३ ॥
पीत्वा
जलं निषण्णस्तु प्रजादुःखेन कर्शितः ।
मुहूर्तादपि
तत्रैव संन्यासी कश्चित् आगतः ॥ २४ ॥
दृष्ट्वा
पीतजलं तं तु विप्रो यातस्तदन्तिकम् ।
नत्वा
च पादयोस्तस्य निःश्वसन् संस्थितः पुरः ॥ २५ ॥
यतिरुवाच
-
कथं
रोदिषि विप्र त्वं का ते चिन्ता बलीयसी ।
वद
त्वं सत्वरम् मह्यं स्वस्य दुःखस्य कारणम् ॥ २६ ॥
ब्राह्मण
उवाच –
किं
ब्रवीमि ऋषे दुःखं पूर्वपापेन संचितम् ।
मदीयाः
पूर्वजास्तोयं कवोष्णं उपभुञ्जते ॥ २७ ॥
मद्दत्तं
नैव गृह्णन्ति प्रीत्या देवा द्विजातयः ।
प्रजादुःखेन
शून्योऽहं प्राणान् त्यक्तुं इहागतः ॥ २८ ॥
धिक्
जीवितं प्रजाहीनं धिक् गृहं च प्रजां विना ।
धिक्
धनं चानपत्यस्य धिक्कुलं संततिं विना ॥ २९ ॥
पाल्यते
या मया धेनुः सा वन्ध्या सर्वथा भवेत् ।
यो
मया रोपितो वृक्षः सोऽपि वन्ध्यत्वमाश्रयेत् ॥ ३० ॥
यत्फलं
मद्गृहायातं तच्च शीघ्रं विनश्यति ।
निर्भाग्यस्यानपत्यस्य
किमतो जीवितेन मे ॥ ३१ ॥
इत्युक्त्वा
स रुरोदोच्चैः तत्पार्श्वं दुःखपीडितः ।
तदा
तस्य यतेश्चित्ते करुणाभूत् गरीयसी ॥ ३२ ॥
तद्भालाक्षरमालां
च वाचमायास योगवान् ।
सर्वं
ज्ञात्वा यतिः पश्चात् विप्रं ऊचे सविस्तरम् ॥ ३३ ॥
यतिरुवाच
-
मुञ्च
अज्ञानं प्रजारूपं बलिष्ठा कर्मणो गतिः ।
विवेकं
तु समासाद्य त्यज संसारवासनाम् ॥ ३४ ॥
श्रुणु
विप्र मया तेऽद्य प्रारब्धं तु विलोकितम् ।
सप्तजन्मावधि
तव पुत्रो नैव च नैव च ॥ ३५ ॥
एक
दिन वह ब्राह्मणदेवता बहुत दुखी होकर घरसे निकलकर वनको चल दिया। दोपहरके समय उसे
प्यास लगी,
इसलिये वह एक तालाबपर आया ॥ २३ ॥ सन्तानके अभावके दु:खने उसके
शरीरको बहुत सुखा दिया था, इसलिये थक जानेके कारण जल पीकर वह
वहीं बैठ गया। दो घड़ी बीतनेपर वहाँ एक संन्यासी महात्मा आये ॥ २४ ॥ जब
ब्राह्मणदेवताने देखा कि वे जल पी चुके हैं, तब वह उनके पास
गया और चरणोंमें नमस्कार करनेके बाद सामने खड़े होकर लंबी- लंबी साँसें लेने लगा ॥
२५ ॥ संन्यासीने पूछा—कहो, ब्राह्मणदेवता
! रोते क्यों हो ? ऐसी तुम्हें क्या भारी चिन्ता है ?
तुम जल्दी ही मुझे अपने दु:खका कारण बताओ ॥ २६ ॥
ब्राह्मणने
कहा—महाराज ! मैं अपने पूर्वजन्मके पापोंसे संचित दु:खका क्या वर्णन करूँ ?
अब मेरे पितर मेरे द्वारा दी हुई जलाञ्जलिके जलको अपनी चिन्ताजनित
साँससे कुछ गरम करके पीते हैं ॥ २७ ॥ देवता और ब्राह्मण मेरा दिया हुआ प्रसन्न
मनसे स्वीकार नहीं करते। सन्तानके लिये मैं इतना दुखी हो गया हूँ कि मुझे सब
सूना-ही-सूना दिखायी देता है। मैं प्राण त्यागनेके लिये यहाँ आया हूँ ॥ २८ ॥
सन्तानहीन जीवनको धिक्कार है, सन्तानहीन गृहको धिक्कार है !
सन्तानहीन धनको धिक्कार है और सन्तानहीन कुलको धिक्कार है !! ॥ २९ ॥ मैं जिस गायको
पालता हूँ, वह भी सर्वथा बाँझ हो जाती है; जो पेड़ लगाता हूँ, उसपर भी फल-फूल नहीं लगते ॥ ३० ॥
मेरे घरमें जो फल आता है, वह भी बहुत जल्दी सड़ जाता है। जब
मैं ऐसा अभागा और पुत्रहीन हूँ, तब फिर इस जीवनको ही रखकर
मुझे क्या करना है ॥ ३१ ॥ यों कहकर वह ब्राह्मण दु:खसे व्याकुल हो उन संन्यासी
महात्माके पास फूट-फूटकर रोने लगा। तब उन यतिवरके हृदयमें बड़ी करुणा उत्पन्न हुई
॥ ३२ ॥ वे योगनिष्ठ थे; उन्होंने उसके ललाटकी रेखाएँ देखकर
सारा वृत्तान्त जान लिया और फिर उसे विस्तारपूर्वक कहने लगे ॥ ३३ ॥
संन्यासीने
कहा—ब्राह्मणदेवता ! इस प्रजाप्राप्तिका मोह त्याग दो। कर्मकी गति प्रबल है,
विवेकका आश्रय लेकर संसारकी वासना छोड़ दो ॥ ३४ ॥ विप्रवर ! सुनो;
मैंने इस समय तुम्हारा प्रारब्ध देखकर निश्चय किया है कि सात जन्मतक
तुम्हारे कोई सन्तान किसी प्रकार नहीं हो सकती ॥ ३५ ॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित
श्रीमद्भागवतमहापुराण(विशिष्टसंस्करण)पुस्तककोड1535 से

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