||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
दूसरा
अध्याय (पोस्ट.०७)
भक्तिका
दु:ख दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग
ततश्चिन्तातुरः
सोऽथ बदरीवनमागतः ।
तपश्चरामि
चात्रेति तदर्थं कृतनिश्चयः ॥ ४३ ॥
तावद्
ददर्श पुरतः सनकादीन् मुनीश्वरान् ।
कोटिसूर्यसमाभासान्
उवाच मुनिसत्तमः ॥ ४४ ॥
नारद
उवाच –
इदानीं
भूरिभाग्येन भवद्भिः संगमोऽभवत् ।
कुमारा
ब्रुवतां शीघ्रं कृपां कृत्वा ममोपरि ॥ ४५ ॥
भवन्तो
योगिनः सर्वे बुद्धिमन्तो बहुश्रुताः ।
पञ्चहायनसंयुक्ताः
पूर्वेषामपि पूर्वजाः ॥ ४६ ॥
सदा
वैकुण्ठनिलया हरिकीर्तनतत्पराः ।
लीलामृतरसोन्मत्ताः
कथामात्रैकजीविनः ॥ ४७ ॥
हरिः
शरणमेव हि नित्यं येषां मुखे वचः ।
अथ
कालसमादिष्टा जरा युष्मान्न बाधते ॥ ४८ ॥
तब
नारदजी बहुत चिन्तातुर हुए और बदरीवनमें आये। ज्ञान-वैराग्यको जगानेके लिये वहाँ
उन्होंने यही निश्चय किया कि ‘मैं तप करूँगा’ ॥ ४३ ॥ इसी समय उन्हें अपने सामने करोड़ों सूर्योंके समान तेजस्वी सनकादि मुनीश्वर
दिखायी दिये। उन्हें देखकर वे मुनिश्रेष्ठ कहने लगे ॥ ४४ ॥—महात्माओ
! इस समय बड़े भाग्यसे मेरा आपलोगोंके साथ समागम हुआ है, आप
मुझपर कृपा करके शीघ्र ही वह साधन बताइये ॥ ४५ ॥ आप सभी लोग बड़े योगी, बुद्धिमान् और विद्वान् हैं। आप देखनेमें पाँच-पाँच वर्षके बालक-से जान
पड़ते हैं, किंतु हैं पूर्वजोंके भी पूर्वज ॥ ४६ ॥ आपलोग सदा
वैकुण्ठधाममें निवास करते हैं, निरन्तर हरिकीर्तनमें तत्पर
रहते हैं, भगवल्लीलामृतका रसास्वादन कर सदा उसीमें उन्मत्त
रहते हैं और एकमात्र भगवत्कथा ही आपके जीवनका आधार है ॥ ४७ ॥ ‘हरि:शरणम्’ (भगवान् ही हमारे रक्षक हैं) यह वाक्य
(मन्त्र) सर्वदा आपके मुखमें रहता है; इसीसे कालप्रेरित
वृद्धावस्था भी आपको बाधा नहीं पहुँचाती ॥ ४८ ॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से

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