Friday, December 8, 2017

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य दूसरा अध्याय (पोस्ट.०७)



|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
दूसरा अध्याय (पोस्ट.०७)

भक्तिका दु:ख दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग

ततश्चिन्तातुरः सोऽथ बदरीवनमागतः ।
तपश्चरामि चात्रेति तदर्थं कृतनिश्चयः ॥ ४३ ॥
तावद् ददर्श पुरतः सनकादीन् मुनीश्वरान् ।
कोटिसूर्यसमाभासान् उवाच मुनिसत्तमः ॥ ४४ ॥

नारद उवाच –

इदानीं भूरिभाग्येन भवद्‌भिः संगमोऽभवत् ।
कुमारा ब्रुवतां शीघ्रं कृपां कृत्वा ममोपरि ॥ ४५ ॥
भवन्तो योगिनः सर्वे बुद्धिमन्तो बहुश्रुताः ।
पञ्चहायनसंयुक्ताः पूर्वेषामपि पूर्वजाः ॥ ४६ ॥
सदा वैकुण्ठनिलया हरिकीर्तनतत्पराः ।
लीलामृतरसोन्मत्ताः कथामात्रैकजीविनः ॥ ४७ ॥
हरिः शरणमेव हि नित्यं येषां मुखे वचः ।
अथ कालसमादिष्टा जरा युष्मान्न बाधते ॥ ४८ ॥

तब नारदजी बहुत चिन्तातुर हुए और बदरीवनमें आये। ज्ञान-वैराग्यको जगानेके लिये वहाँ उन्होंने यही निश्चय किया कि मैं तप करूँगा॥ ४३ ॥ इसी समय उन्हें अपने सामने करोड़ों सूर्योंके समान तेजस्वी सनकादि मुनीश्वर दिखायी दिये। उन्हें देखकर वे मुनिश्रेष्ठ कहने लगे ॥ ४४ ॥महात्माओ ! इस समय बड़े भाग्यसे मेरा आपलोगोंके साथ समागम हुआ है, आप मुझपर कृपा करके शीघ्र ही वह साधन बताइये ॥ ४५ ॥ आप सभी लोग बड़े योगी, बुद्धिमान् और विद्वान् हैं। आप देखनेमें पाँच-पाँच वर्षके बालक-से जान पड़ते हैं, किंतु हैं पूर्वजोंके भी पूर्वज ॥ ४६ ॥ आपलोग सदा वैकुण्ठधाममें निवास करते हैं, निरन्तर हरिकीर्तनमें तत्पर रहते हैं, भगवल्लीलामृतका रसास्वादन कर सदा उसीमें उन्मत्त रहते हैं और एकमात्र भगवत्कथा ही आपके जीवनका आधार है ॥ ४७ ॥ हरि:शरणम्’ (भगवान्‌ ही हमारे रक्षक हैं) यह वाक्य (मन्त्र) सर्वदा आपके मुखमें रहता है; इसीसे कालप्रेरित वृद्धावस्था भी आपको बाधा नहीं पहुँचाती ॥ ४८ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से 


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