||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
दूसरा
अध्याय (पोस्ट.०६)
भक्तिका
दु:ख दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग
नारद
उवाच –
अनयाऽऽकाशवाण्यापि
गोप्यत्वेन निरूपितम् ।
किं
वा तत्साधनं कार्यं येन कार्यं भवेत् तयोः ॥ ३५ ॥
क्व
भविष्यन्ति सन्तस्ते कथं दास्यन्ति साधनम् ।
मयात्र
किं प्रकर्तव्यं यदुक्तं व्योमभाषया ॥ ३६ ॥
सूत
उवाच –
तत्र
द्वौ अपि संस्थाप्य निर्गतो नारदो मुनिः ।
तीर्थं
तीर्थं विनिष्क्रम्य पृच्छन् मार्गे मुनीश्वरान् ॥ ३७ ॥
वृत्तान्तः
श्रूयते सर्वैः किंचित् निश्चित्य नोच्यते ।
असाध्यं
केचन प्रोचुः दुर्ज्ञेयमिति चापरे ।
मूकीभूतास्तथान्ये
तु कियन्तस्तु पलायिताः ॥ ३८ ॥
हाहाकारो
महानासीत् त्रैलोक्ये विस्मयावहः ।
वेदवेदान्तघोषैश्च
गीतापाठैर्विबोधितम् ॥ ३९ ॥
भक्तिज्ञानविरागाणां
नोदतिष्ठत् त्रिकं यदा
उपायो
नापरोऽस्तीति कर्णे कर्णेऽजपञ्जनाः ॥ ४० ॥
योगिना
नारदेनापि स्वयं न ज्ञायते तु यत् ।
तत्कथं
शक्यते वक्तुं इतरैरिह मानुषैः ॥ ४१ ॥
एवं
ऋषिगणैः पृष्टैः निर्णीयोक्तं दुरासदम् ॥ ४२ ॥
नारदजी
बोले—इस आकाशवाणीने भी गुप्तरूपमें ही बात कही है। यह नहीं बताया कि वह कौन-सा
साधन किया जाय, जिससे इनका कार्य सिद्ध हो ॥ ३५ ॥ वे संत न
जाने कहाँ मिलेंगे और किस प्रकार उस साधनको बतायेंगे ? अब
आकाशवाणीने जो कुछ कहा है, उसके अनुसार मुझे क्या करना
चाहिये ? ॥ ३६ ॥
सूतजी
बोले—शौनकजी ! तब ज्ञान-वैराग्य दोनोंको वहीं छोडक़र नारदमुनि वहाँसे चल पड़े और
प्रत्येक तीर्थमें जा-जाकर मार्गमें मिलनेवाले मुनीश्वरोंसे वह साधन पूछने लगे ॥
३७ ॥ उनकी उस बातको सुनते तो सब थे, किंतु उसके विषयमें कोई
कुछ भी निश्चित उत्तर न देता। किन्हींने उसे असाध्य बताया; कोई
बोले—‘इसका ठीक-ठीक पता लगना ही कठिन है।’ कोई सुनकर चुप रह गये और कोई-कोई तो अपनी अवज्ञा होनेके भयसे बातको
टाल-टूलकर खिसक गये ॥ ३८ ॥ त्रिलोकीमें महान् आश्चर्यजनक हाहाकार मच गया। लोग
आपसमें कानाफूसी करने लगे— ‘भाई ! जब वेदध्वनि, वेदान्तघोष और बार-बार गीतापाठ सुनानेपर भी भक्ति, ज्ञान
और वैराग्य—ये तीनों नहीं जगाये जा सके, तब और कोई उपाय नहीं है ॥ ३९-४० ॥ स्वयं योगिराज नारदको भी जिसका ज्ञान
नहीं है, उसे दूसरे संसारी लोग कैसे बता सकते हैं ?’ ॥ ४१ ॥ इस प्रकार जिन-जिन ऋषियोंसे इसके विषयमें पूछा गया, उन्होंने निर्णय करके यही कहा कि यह बात दु:साध्य ही है ॥ ४२ ॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से

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