Friday, December 8, 2017

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य दूसरा अध्याय (पोस्ट.०६)



|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
दूसरा अध्याय (पोस्ट.०६)

भक्तिका दु:ख दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग

नारद उवाच –

अनयाऽऽकाशवाण्यापि गोप्यत्वेन निरूपितम् ।
किं वा तत्साधनं कार्यं येन कार्यं भवेत् तयोः ॥ ३५ ॥
क्व भविष्यन्ति सन्तस्ते कथं दास्यन्ति साधनम् ।
मयात्र किं प्रकर्तव्यं यदुक्तं व्योमभाषया ॥ ३६ ॥

सूत उवाच –

तत्र द्वौ अपि संस्थाप्य निर्गतो नारदो मुनिः ।
तीर्थं तीर्थं विनिष्क्रम्य पृच्छन् मार्गे मुनीश्वरान् ॥ ३७ ॥
वृत्तान्तः श्रूयते सर्वैः किंचित् निश्चित्य नोच्यते ।
असाध्यं केचन प्रोचुः दुर्ज्ञेयमिति चापरे ।
मूकीभूतास्तथान्ये तु कियन्तस्तु पलायिताः ॥ ३८ ॥
हाहाकारो महानासीत् त्रैलोक्ये विस्मयावहः ।
वेदवेदान्तघोषैश्च गीतापाठैर्विबोधितम् ॥ ३९ ॥
भक्तिज्ञानविरागाणां नोदतिष्ठत् त्रिकं यदा
उपायो नापरोऽस्तीति कर्णे कर्णेऽजपञ्जनाः ॥ ४० ॥
योगिना नारदेनापि स्वयं न ज्ञायते तु यत् ।
तत्कथं शक्यते वक्तुं इतरैरिह मानुषैः ॥ ४१ ॥
एवं ऋषिगणैः पृष्टैः निर्णीयोक्तं दुरासदम् ॥ ४२ ॥

नारदजी बोलेइस आकाशवाणीने भी गुप्तरूपमें ही बात कही है। यह नहीं बताया कि वह कौन-सा साधन किया जाय, जिससे इनका कार्य सिद्ध हो ॥ ३५ ॥ वे संत न जाने कहाँ मिलेंगे और किस प्रकार उस साधनको बतायेंगे ? अब आकाशवाणीने जो कुछ कहा है, उसके अनुसार मुझे क्या करना चाहिये ? ॥ ३६ ॥
सूतजी बोलेशौनकजी ! तब ज्ञान-वैराग्य दोनोंको वहीं छोडक़र नारदमुनि वहाँसे चल पड़े और प्रत्येक तीर्थमें जा-जाकर मार्गमें मिलनेवाले मुनीश्वरोंसे वह साधन पूछने लगे ॥ ३७ ॥ उनकी उस बातको सुनते तो सब थे, किंतु उसके विषयमें कोई कुछ भी निश्चित उत्तर न देता। किन्हींने उसे असाध्य बताया; कोई बोले—‘इसका ठीक-ठीक पता लगना ही कठिन है।कोई सुनकर चुप रह गये और कोई-कोई तो अपनी अवज्ञा होनेके भयसे बातको टाल-टूलकर खिसक गये ॥ ३८ ॥ त्रिलोकीमें महान् आश्चर्यजनक हाहाकार मच गया। लोग आपसमें कानाफूसी करने लगे— ‘भाई ! जब वेदध्वनि, वेदान्तघोष और बार-बार गीतापाठ सुनानेपर भी भक्ति, ज्ञान और वैराग्यये तीनों नहीं जगाये जा सके, तब और कोई उपाय नहीं है ॥ ३९-४० ॥ स्वयं योगिराज नारदको भी जिसका ज्ञान नहीं है, उसे दूसरे संसारी लोग कैसे बता सकते हैं ?’ ॥ ४१ ॥ इस प्रकार जिन-जिन ऋषियोंसे इसके विषयमें पूछा गया, उन्होंने निर्णय करके यही कहा कि यह बात दु:साध्य ही है ॥ ४२ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से 


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