||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पहला
अध्याय (पोस्ट.०९)
देवर्षि
नारदकी भक्तिसे भेंट
इदानीं
श्रुणु मद्वार्तां सचित्तस्त्वं तपोधन ।
वार्ता
मे वितताप्यस्ति तां श्रुत्वा सुखमावह ॥ ४७ ॥
उत्पन्ना
द्रविडे साहं वृद्धिं कर्नाटके गता ।
क्वचित्
क्वचित् महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता ॥ ४८ ॥
तत्र
घोर कलेर्योगात् पाखण्डैः खण्डिताङ्गका ।
दुर्बलाहं
चिरं याता पुत्राभ्यां सह मन्दताम् ॥ ४९ ॥
वृन्दावनं
पुनः प्राप्य नवीनेव सुरूपिणी ।
जाताहं
उवती सम्यक् श्रेष्ठरूपा तु सांप्रतम् ॥ ५० ॥
इमौ
तु शयितौ अत्र सुतौ मे क्लिश्यतः श्रमात् ।
इदं
स्थानं परित्यज्य विदेशं गम्यते मया ॥ ५१ ॥
जरठत्वं
समायातौ तेन दुःखेन दुःखिता ।
साहं
तु तरुणी कस्मात् सुतौ वृद्धौ इमौ कुतः ॥ ५२ ॥
प्रयाणां
सहचारित्वात् वैपरीत्यं कुतः स्थितम् ।
घटते
जरठा माता तरुणौ तनयौ इति ॥ ५३ ॥
अतः
शोचामि चात्मानं विस्मयाविष्टमानसा ।
वद
योगनिधे धीमन् कारणं चात्र किं भवेत् ॥ ५४ ॥
(भक्ति
नारद जी से कह रही है) तपोधन ! अब ध्यान देकर मेरा वृत्तान्त सुनिये। मेरी कथा
वैसे तो प्रसिद्ध है,
फिर भी उसे सुनकर आप मुझे शान्ति प्रदान करें ॥ ४७ ॥ मैं द्रविड़
देश में उत्पन्न हुई, कर्णाटक में बढ़ी, कहीं-कहीं महाराष्ट्र में सम्मानित हुई; किन्तु
गुजरातमें मुझको बुढ़ापे ने आ घेरा ॥ ४८ ॥ वहाँ घोर कलियुग के प्रभाव से
पाखण्डियों ने मुझे अङ्ग- भङ्ग कर दिया। चिरकालतक यह अवस्था रहनेके कारण मैं अपने
पुत्रोंके साथ दुर्बल और निस्तेज हो गयी ॥ ४९ ॥ अब जबसे मैं वृन्दावन आयी, तबसे पुन: परम सुन्दरी सुरूपवती नवयुवती हो गयी हूँ ॥ ५० ॥ किन्तु सामने
पड़े हुए ये दोनों मेरे पुत्र थके-माँदे दुखी हो रहे हैं। अब मैं यह स्थान छोडक़र
अन्यत्र जाना चाहती हूँ ॥ ५१ ॥ ये दोनों बूढ़े हो गये हैं—इसी
दु:खसे मैं दुखी हूँ। मैं तरुणी क्यों और ये दोनों मेरे पुत्र बूढ़े क्यों ?
॥ ५२ ॥ हम तीनों साथ-साथ रहनेवाले हैं। फिर यह विपरीतता क्यों ?
होना तो यह चाहिये कि माता बूढ़ी हो और पुत्र तरुण ॥ ५३ ॥ इसीसे मैं
आश्चर्य- चकित चित्तसे अपनी इस अवस्थापर शोक करती रहती हूँ। आप परम बुद्धिमान् एवं
योगनिधि हैं; इसका क्या कारण हो सकता है, बताइये ? ॥ ५४ ॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से
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