||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पहला
अध्याय (पोस्ट.०८)
देवर्षि
नारदकी भक्तिसे भेंट
एवं
पश्यन् कलेर्दोषान् पर्यटन् अवनीं अहम् ।
यामुनं
तटमापन्नो यत्र लीला हरेरभूत् ॥ ३७ ॥
तत्राश्चर्यं
मया दृष्टं श्रूयतां तन्मुनीश्वराः ।
एका
तु तरुणी तत्र निषण्णा खिन्नमानसा ॥ ३८ ॥
वृद्धौ
द्वौ पतितौ पार्श्वे निःश्वसन्तौ अचेतनौ ।
शुश्रूषन्ती
प्रबोधन्ती रुदती च तयोः पुरः ॥ ३९ ॥
दशदिक्षु
निरीक्षन्ती रक्षितारं निजं वपुः ।
वीज्यमाना
शतस्त्रीभिः बोध्यमाना मुहुर्मुहुः ॥ ४० ॥
दृष्ट्वा
दुराद् गतः सोऽहं कौतुकेन तदन्तिकम् ।
मां
दृष्ट्वा चोत्थिता बाला विह्वला चाब्रवीद् वचः ॥ ४१ ॥
बालोवाच
-
भो
भोः साधो क्षणं तिष्ठ मच्चिन्तामपि नाशय ।
दर्शनं
तव लोकस्य सर्वथाघहरं परम् ॥ ४२ ॥
बहुधा
तव वाक्येन दुःखशान्तिर्भविष्यति ।
यदा
भाग्यं भवेद् भूरि भवतो दर्शनं तदा ॥ ४३ ॥
नारद
उवाच -
कासि
त्वं कौ इमौ चेमा नार्यः काः पद्मलोचनाः ।
वद
देवि सविस्तारं स्वस्य दुःखस्य कारणम् ॥ ४४ ॥
बालोवाच
-
अहं
भक्तिरिति ख्याता इमौ मे तनयौ मतौ ।
ज्ञानवैराग्य
नामानौ कालयोगेन जर्जरौ ॥ ४५ ॥
गङ्गाद्या
स्मरितश्चेमा मत्सेवार्थं समागताः ।
तथापि
न च मे श्रेयः सेवितायाः सुरैरपि ॥ ४६ ॥
इस
तरह कलियुगके दोष देखता और पृथ्वीपर विचरता हुआ मैं यमुनाजीके तटपर पहुँचा, जहाँ भगवान् श्रीकृष्णकी अनेकों लीलाएँ हो चुकी हैं ॥ ३७ ॥ मुनिवरो !
सुनिये, वहाँ मैंने एक बड़ा आश्चर्य देखा। वहाँ एक युवती
स्त्री खिन्न मनसे बैठी थी ॥ ३८ ॥ उसके पास दो वृद्ध पुरुष अचेत अवस्थामें पड़े
जोर-जोरसे साँस ले रहे थे। वह तरुणी उनकी सेवा करती हुई कभी उन्हें चेत कराने का
प्रयत्न करती और कभी उनके आगे रोने लगती थी ॥ ३९ ॥ वह अपने शरीरके रक्षक
परमात्माको दसों दिशाओंमें देख रही थी। उसके चारों ओर सैकड़ों स्त्रियाँ उसे पंखा
झल रही थीं और बार-बार समझाती जाती थीं ॥ ४० ॥ दूरसे यह सब चरित देखकर मैं
कुतूहलवश उसके पास चला गया। मुझे देखकर वह युवती खड़ी हो गयी और बड़ी व्याकुल होकर
कहने लगी ॥ ४१ ॥---अजी महात्माजी ! क्षणभर ठहर जाइये और मेरी चिन्ताको भी नष्ट कर
दीजिये। आपका दर्शन तो संसारके सभी पापोंको सर्वथा नष्ट कर देनेवाला है ॥ ४२ ॥
आपके वचनोंसे मेरे दु:खकी भी बहुत कुछ शान्ति हो जायगी। मनुष्यका जब बड़ा भाग्य
होता है, तभी आपके दर्शन हुआ करते हैं ॥ ४३ ॥
तब
(उस युवती से) नारदजी ने पूछा—देवि ! तुम कौन हो ? ये दोनों पुरुष तुम्हारे क्या होते हैं ? और
तुम्हारे पास ये कमलनयनी देवियाँ कौन हैं ? तुम हमें
विस्तारसे अपने दु:खका कारण बताओ ॥ ४४ ॥ युवतीने कहा—मेरा
नाम भक्ति है, ये ज्ञान और वैराग्य नामक मेरे पुत्र हैं।
समयके फेरसे ही ये ऐसे जर्जर हो गये हैं ॥ ४५ ॥ ये देवियाँ गङ्गाजी आदि नदियाँ हैं
। ये सब मेरी सेवा करनेके लिये ही आयी हैं। इस प्रकार साक्षात् देवियोंके द्वारा
सेवित होनेपर भी मुझे सुख-शान्ति नहीं है ॥ ४६ ॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से
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