||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पहला
अध्याय (पोस्ट.१०)
देवर्षि
नारदकी भक्तिसे भेंट
नारद
उवाच -
ज्ञानेनात्मनि
पश्यामि सर्वं एतत् तवानघे ।
न
विषादः त्वया कार्यो हरिः शं ते करिष्यति ॥ ५५ ॥
सूत
उवाच -
क्षणमात्रेण
तज्ज्ञात्वा वाक्यं ऊचे मुनीश्वरः ॥ ५६ ॥
नारद
उवाच -
श्रुणुषु
अवहिता बाले योगोऽयं दारुणा कलिः ।
तेन
लुप्तः सदाचारो योगमार्गः तपांसि च ॥ ५७ ॥
जना
अघासुरायन्ते शाठ्यदुष्कर्मकारिणः ।
इह
सन्तो विषीदन्ति प्रहृष्यन्ति हि असाधवः ।
धत्ते
धैर्यं तु यो धीमान् स धीरः पण्डितोऽथवा ॥ ५८ ॥
अस्पृश्यान्
अवलोक्येयं शेषभारकरी धरा ।
वर्षे
वर्षे क्रमात् जाता मंगलं नापि दृश्यते ॥ ५९ ॥
न
त्वामपि सुतैः साकं कोऽपि पश्यति सांप्रतम् ।
उपेक्षितानुरागान्धैः
जर्जरत्वेन संस्थिता ॥ ६० ॥
वृन्दावनस्य
संयोगात् पुनस्त्वं तरुणी नवा ।
धन्यं
वृन्दावनं तेन भक्तिः नृत्यति यत्र च ॥ ६१ ॥
अत्रेमौ
ग्राहकाभावात् न जरामपि मुञ्चतः ।
किञ्चित्
आत्मसुखेनेह प्रसुप्तिः मन्यतेऽनयोः ॥ ६२ ॥
नारदजीने
(भक्ति से)कहा—साध्वि ! मैं अपने हृदयमें ज्ञानदृष्टिसे तुम्हारे सम्पूर्ण दु:खका कारण
देखता हूँ, तुम्हें विषाद नहीं करना चाहिये। श्रीहरि
तुम्हारा कल्याण करेंगे ॥ ५५ ॥
सूतजी
कहते हैं—मुनिवर नारदजीने एक क्षणमें ही उसका कारण जानकर कहा ॥ ५६ ॥
नारदजीने
कहा—देवि ! सावधान होकर सुनो। यह दारुण कलियुग है। इसीसे इस समय सदाचार,
योगमार्ग और तप आदि सभी लुप्त हो गये हैं ॥ ५७ ॥ लोग शठता और
दुष्कर्ममें लगकर अघासुर बन रहे हैं। संसारमें जहाँ देखो, वहीं
सत्पुरुष दु:खसे म्लान हैं और दुष्ट सुखी हो रहे हैं। इस समय जिस बुद्धिमान्
पुरुषका धैर्य बना रहे, वही बड़ा ज्ञानी या पण्डित है ॥ ५८ ॥
पृथ्वी क्रमश: प्रतिवर्ष शेषजीके लिये भाररूप होती जा रही है। अब यह छूनेयोग्य तो
क्या, देखनेयोग्य भी नहीं रह गयी है और न इसमें कहीं मङ्गल
ही दिखायी देता है ॥ ५९ ॥ अब किसीको पुत्रोंके साथ तुम्हारा दर्शन भी नहीं होता।
विषयानुरागके कारण अंधे बने हुए जीवोंसे उपेक्षित होकर तुम जर्जर हो रही थी ॥ ६० ॥
वृन्दावनके संयोगसे तुम फिर नवीन तरुणी हो गयी हो। अत: यह वृन्दावनधाम धन्य है,
जहाँ भक्ति सर्वत्र नृत्य कर रही है ॥ ६१ ॥ परंतु तुम्हारे इन दोनों
पुत्रोंका यहाँ कोई ग्राहक नहीं है, इसलिये इनका बुढ़ापा
नहीं छूट रहा है। यहाँ इनको कुछ आत्मसुख (भगवत्स्पर्शजनित आनन्द) की प्राप्ति
होनेके कारण ये सोते-से जान पड़ते हैं ॥ ६२ ॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से
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