Thursday, December 7, 2017

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य पहला अध्याय (पोस्ट.१०)




|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पहला अध्याय (पोस्ट.१०)

देवर्षि नारदकी भक्तिसे भेंट

नारद उवाच -
ज्ञानेनात्मनि पश्यामि सर्वं एतत् तवानघे ।
न विषादः त्वया कार्यो हरिः शं ते करिष्यति ॥ ५५ ॥

सूत उवाच -
क्षणमात्रेण तज्ज्ञात्वा वाक्यं ऊचे मुनीश्वरः ॥ ५६ ॥

नारद उवाच -
श्रुणुषु अवहिता बाले योगोऽयं दारुणा कलिः ।
तेन लुप्तः सदाचारो योगमार्गः तपांसि च ॥ ५७ ॥
जना अघासुरायन्ते शाठ्यदुष्कर्मकारिणः ।
इह सन्तो विषीदन्ति प्रहृष्यन्ति हि असाधवः ।
धत्ते धैर्यं तु यो धीमान् स धीरः पण्डितोऽथवा ॥ ५८ ॥
अस्पृश्यान् अवलोक्येयं शेषभारकरी धरा ।
वर्षे वर्षे क्रमात् जाता मंगलं नापि दृश्यते ॥ ५९ ॥
न त्वामपि सुतैः साकं कोऽपि पश्यति सांप्रतम् ।
उपेक्षितानुरागान्धैः जर्जरत्वेन संस्थिता ॥ ६० ॥
वृन्दावनस्य संयोगात् पुनस्त्वं तरुणी नवा ।
धन्यं वृन्दावनं तेन भक्तिः नृत्यति यत्र च ॥ ६१ ॥
अत्रेमौ ग्राहकाभावात् न जरामपि मुञ्चतः ।
किञ्चित् आत्मसुखेनेह प्रसुप्तिः मन्यतेऽनयोः ॥ ६२ ॥

नारदजीने (भक्ति से)कहासाध्वि ! मैं अपने हृदयमें ज्ञानदृष्टिसे तुम्हारे सम्पूर्ण दु:खका कारण देखता हूँ, तुम्हें विषाद नहीं करना चाहिये। श्रीहरि तुम्हारा कल्याण करेंगे ॥ ५५ ॥
सूतजी कहते हैंमुनिवर नारदजीने एक क्षणमें ही उसका कारण जानकर कहा ॥ ५६ ॥
नारदजीने कहादेवि ! सावधान होकर सुनो। यह दारुण कलियुग है। इसीसे इस समय सदाचार, योगमार्ग और तप आदि सभी लुप्त हो गये हैं ॥ ५७ ॥ लोग शठता और दुष्कर्ममें लगकर अघासुर बन रहे हैं। संसारमें जहाँ देखो, वहीं सत्पुरुष दु:खसे म्लान हैं और दुष्ट सुखी हो रहे हैं। इस समय जिस बुद्धिमान् पुरुषका धैर्य बना रहे, वही बड़ा ज्ञानी या पण्डित है ॥ ५८ ॥ पृथ्वी क्रमश: प्रतिवर्ष शेषजीके लिये भाररूप होती जा रही है। अब यह छूनेयोग्य तो क्या, देखनेयोग्य भी नहीं रह गयी है और न इसमें कहीं मङ्गल ही दिखायी देता है ॥ ५९ ॥ अब किसीको पुत्रोंके साथ तुम्हारा दर्शन भी नहीं होता। विषयानुरागके कारण अंधे बने हुए जीवोंसे उपेक्षित होकर तुम जर्जर हो रही थी ॥ ६० ॥ वृन्दावनके संयोगसे तुम फिर नवीन तरुणी हो गयी हो। अत: यह वृन्दावनधाम धन्य है, जहाँ भक्ति सर्वत्र नृत्य कर रही है ॥ ६१ ॥ परंतु तुम्हारे इन दोनों पुत्रोंका यहाँ कोई ग्राहक नहीं है, इसलिये इनका बुढ़ापा नहीं छूट रहा है। यहाँ इनको कुछ आत्मसुख (भगवत्स्पर्शजनित आनन्द) की प्राप्ति होनेके कारण ये सोते-से जान पड़ते हैं ॥ ६२ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से 


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