||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
दूसरा
अध्याय (पोस्ट.०१)
भक्तिका
दु:ख दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग
नारद
उवाच –
वृथा
खेदयसे बाले अहो चिन्तातुरा कथम् ।
श्रीकृष्णचरणाम्भोजं
स्मर दुःखं गमिष्यति ॥ १ ॥
द्रौपदी
च परित्राता येन कौरवकश्मलात् ।
पालिता
गोपसुन्दर्यः स कृष्णः क्वापि नो गतः ॥ २ ॥
त्वंतु
भक्तिः प्रिया तस्य सततं प्राणतोऽधिका ।
त्वयाऽऽहूतस्तु
भगवान् याति नीचगृहेष्वपि ॥ ३ ॥
सत्यादित्रियुगे
बोध वैराग्यौ मुक्तिसाधकौ ।
कलौ
तु केवला भक्तिः ब्रह्मसायुज्यकारिणी ॥ ४ ॥
इति
निश्चित्य चिद्रूपः सद्रूपां त्वां ससर्ज ह ।
परमानन्दचिन्मूर्ति
सुंदरीं कृष्णवल्लभाम् ॥ ५ ॥
बद्ध्वांजलिं
त्वया पृष्टं किं करोमीति चैकदा ।
त्वां
तदाऽऽज्ञापयत् कृष्णो मद्भक्तान् पोषयेति च ॥ ६ ॥
अंगीकृतं
त्वया तद्वै प्रसन्नोऽभूत् हरिस्तदा ।
मुक्तिं
दासीं ददौ तुभ्यं ज्ञानवैराग्यकौ इमौ ॥ ७ ॥
नारदजीने(भक्ति
से) कहा—बाले ! तुम व्यर्थ ही अपनेको क्यों खेदमें डाल रही हो ? अरे ! तुम इतनी चिन्तातुर क्यों हो ? भगवान्
श्रीकृष्णके चरणकमलोंका चिन्तन करो, उनकी कृपासे तुम्हारा
सारा दु:ख दूर हो जायगा ॥ १ ॥ जिन्होंने कौरवोंके अत्याचारसे द्रौपदीकी रक्षा की
थी और गोपसुन्दरियोंको सनाथ किया था, वे श्रीकृष्ण कहीं चले
थोड़े ही गये हैं ॥ २ ॥ फिर तुम तो भक्ति हो और सदा उन्हें प्राणोंसे भी प्यारी हो;
तुम्हारे बुलानेपर तो भगवान् नीचोंके घरोंमें भी चले जाते हैं ॥ ३
॥ सत्य, त्रेता और द्वापर—इन तीन
युगोंमें ज्ञान और वैराग्य मुक्तिके साधन थे; किन्तु
कलियुगमें तो केवल भक्ति ही ब्रह्मसायुज्य (मोक्ष) की प्राप्ति करानेवाली है ॥ ४ ॥
यह सोचकर ही परमानन्दचिन्मूर्ति ज्ञानस्वरूप श्रीहरिने अपने सत्यस्वरूपसे तुम्हें
रचा है; तुम साक्षात् श्रीकृष्णचन्द्र- की प्रिया और परम
सुन्दरी हो ॥ ५ ॥ एक बार जब तुमने हाथ जोडक़र पूछा था कि ‘मैं
क्या करूँ ?’ तब भगवान्ने तुम्हें यही आज्ञा दी थी कि ‘मेरे भक्तोंका पोषण करो।’ ॥ ६ ॥ तुमने भगवान्की वह
आज्ञा स्वीकार कर ली; इससे तुमपर श्रीहरि बहुत प्रसन्न हुए
और तुम्हारी सेवा करनेके लिये मुक्तिको तुम्हें दासीके रूपमें दे दिया और इन
ज्ञान- वैराग्यको पुत्रोंके रूपमें ॥ ७ ॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से
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