Friday, December 8, 2017

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य दूसरा अध्याय (पोस्ट.०१)



|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
दूसरा अध्याय (पोस्ट.०१)

भक्तिका दु:ख दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग

नारद उवाच –

वृथा खेदयसे बाले अहो चिन्तातुरा कथम् ।
श्रीकृष्णचरणाम्भोजं स्मर दुःखं गमिष्यति ॥ १ ॥
द्रौपदी च परित्राता येन कौरवकश्मलात् ।
पालिता गोपसुन्दर्यः स कृष्णः क्वापि नो गतः ॥ २ ॥
त्वंतु भक्तिः प्रिया तस्य सततं प्राणतोऽधिका ।
त्वयाऽऽहूतस्तु भगवान् याति नीचगृहेष्वपि ॥ ३ ॥
सत्यादित्रियुगे बोध वैराग्यौ मुक्तिसाधकौ ।
कलौ तु केवला भक्तिः ब्रह्मसायुज्यकारिणी ॥ ४ ॥
इति निश्चित्य चिद्‌रूपः सद्‌रूपां त्वां ससर्ज ह ।
परमानन्दचिन्मूर्ति सुंदरीं कृष्णवल्लभाम् ॥ ५ ॥
बद्ध्वांजलिं त्वया पृष्टं किं करोमीति चैकदा ।
त्वां तदाऽऽज्ञापयत् कृष्णो मद्‌भक्तान् पोषयेति च ॥ ६ ॥
अंगीकृतं त्वया तद्वै प्रसन्नोऽभूत् हरिस्तदा ।
मुक्तिं दासीं ददौ तुभ्यं ज्ञानवैराग्यकौ इमौ ॥ ७ ॥

नारदजीने(भक्ति से) कहाबाले ! तुम व्यर्थ ही अपनेको क्यों खेदमें डाल रही हो ? अरे ! तुम इतनी चिन्तातुर क्यों हो ? भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणकमलोंका चिन्तन करो, उनकी कृपासे तुम्हारा सारा दु:ख दूर हो जायगा ॥ १ ॥ जिन्होंने कौरवोंके अत्याचारसे द्रौपदीकी रक्षा की थी और गोपसुन्दरियोंको सनाथ किया था, वे श्रीकृष्ण कहीं चले थोड़े ही गये हैं ॥ २ ॥ फिर तुम तो भक्ति हो और सदा उन्हें प्राणोंसे भी प्यारी हो; तुम्हारे बुलानेपर तो भगवान्‌ नीचोंके घरोंमें भी चले जाते हैं ॥ ३ ॥ सत्य, त्रेता और द्वापरइन तीन युगोंमें ज्ञान और वैराग्य मुक्तिके साधन थे; किन्तु कलियुगमें तो केवल भक्ति ही ब्रह्मसायुज्य (मोक्ष) की प्राप्ति करानेवाली है ॥ ४ ॥ यह सोचकर ही परमानन्दचिन्मूर्ति ज्ञानस्वरूप श्रीहरिने अपने सत्यस्वरूपसे तुम्हें रचा है; तुम साक्षात् श्रीकृष्णचन्द्र- की प्रिया और परम सुन्दरी हो ॥ ५ ॥ एक बार जब तुमने हाथ जोडक़र पूछा था कि मैं क्या करूँ ?’ तब भगवान्‌ने तुम्हें यही आज्ञा दी थी कि मेरे भक्तोंका पोषण करो।॥ ६ ॥ तुमने भगवान्‌की वह आज्ञा स्वीकार कर ली; इससे तुमपर श्रीहरि बहुत प्रसन्न हुए और तुम्हारी सेवा करनेके लिये मुक्तिको तुम्हें दासीके रूपमें दे दिया और इन ज्ञान- वैराग्यको पुत्रोंके रूपमें ॥ ७ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से 


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